गीता हम सबका धर्म शास्त्र है। भगवान योगेश्वर श्री कृष्ण की मुख की वाणी हैं। सम्पूर्ण गीता में योगेश्वर ने सात स्थलों पर ओम के उच्चारण पर बल दिया है। वस्तुत: चिन्तन का विधान जैसा श्री कृष्ण ने बताया है वैसा ही करें।
”ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।’ अर्जुन ॐ बस इतना ही अक्षय ब्रह्म का परिचायक है। इसका तू जप कर ध्यान मेरा धर क्योंकि परमभाव में प्रवेश मिल जाने के बाद उस महापुरूष का भी वही नाम है जो उस अव्यक्त का परिचायक है। उनका प्रभाव देखने पर अर्जुन ने पाया कि न वे काले हैं, न गोरे हैं, न सखा हैं, न यादव हैं यह तो अक्षय ब्रह्म की स्थिति वाले महात्मा हैं। यदि आपको जय करना है तो कृष्ण—कृष्ण न कह, ॐ का ही जप करें।
प्राय: भाविक लोग कोई न कोई रास्ता निकाल लेते हैं। कोई ओम जपने के अधिकार अनाधिकार की चर्चा से भयभीत है तो कोई महात्माओं की दुहाई देता है अथवा कोई श्री कृष्ण ही नहीं राधा और गोपियों का नाम शीघ्र प्रसन्नता की लोभ से जपता है। ऐसा जपना मात्र भावुकता है। यदि आप सचमुच भाविक हैं तो श्री कृष्ण के आदेश का पालन करें। वे अव्यक्त स्थिति में होते हुए भी आज आपके सामने नहीं हैं किन्तु उनकी वाणी आपके समक्ष है। उनकी आज्ञा का पालन करें अन्यथा आप समझिये गीता में आपका क्या स्थान है? ”अध्येष्यते च य इमं… श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।” जो अध्ययन करता है, सुनता है वह ज्ञान तथा यज्ञ को जान लेता है शुभ लोकों को पा जाता है। अत: अध्ययन अवश्य करें। ‘यथार्थ गीता’ को पढ़ें।
प्राण—अपान के चिन्तन में श्री कृष्ण नाम का क्रम पकड़ में नहीं आता है। कोरी भावुकतावश आजकल लोग राधे—राधे कहने लगे हैं। कृष्ण कहना बन्द करके राधे—राधे कहना आरम्भ कर दिया है। वे कहते हैं ‘राधे—राधे श्याम मिला दे’ एक बार राधा बिछड़ी तो स्वयं श्याम से नहीं मिल पायी, वह आपको कैसे मिला दें।
अत: किसी अन्य का कहना न मानकर श्रीकृष्ण के आदेश को अक्षरश: माने, ओम का जप करें, ध्यान सद्गुरू का धरें। यहां तक उचित है कि राधा हमारा आदर्श हैं, उतनी ही लगन से हमें भी लगना हैं। यदि पाना है तो राधा की तरह विरही बनना होगा। कृष्ण उनका प्रचलित नाम था अन्य नाम जैसे गोपाल आदि नामों से जपते हैं किन्तु प्राप्ति के पश्चात प्रत्येक महापुरूष का वही नाम है जिस अव्यक्त में वह स्थित हैं। बहुत से शिष्य सद्गुरूदेव भगवान से प्रश्न करते हैं ”गुरूदेव! जब ध्यान आपका करते हैं तो पुराना नाम ‘ओम’ इत्यादि क्यों जपें, गुरू—गुरू अथवा कृष्ण—कृष्ण क्यों न कहें। किन्तु यहां पर योगेश्वर ने स्पष्ट किया है कि अव्यक्त स्वरूप में विलय के साथ महापुरूष का वही नाम है जिसमें वह स्थित हैं। कृष्ण जपने का नाम नहीं बल्कि सम्बोधन था।
गीता के 17वें अध्याय के श्लाक 23 में कहा गया है कि यज्ञ, वेद और ब्राह्मण ओम से पैदा होते हैं। ये योगजन्य हैं। ओम के सतत चिन्तन से ही यज्ञ होता है। यज्ञ होने लगता है तो साधक के हृदय में भगवान का निर्देश उतरने लगता है वही साधक के लिए वेद हैं और उन निर्देशों पर चलते हुए ब्रह्म के साथ एकीभूत होने पर वह ब्राह्मण हो जाता है। इसलिए ओम का चिन्तन एवं जप करना चाहिये। यज्ञ, दान और तप की क्रियाएं निरन्तर ओम नाम के उच्चारण से ही की जाती है। विस्तृत जानकारी ”यथार्थ गीता” से करें।
बोल सद्गुरूदेव भगवान की जय…।