भाद्र पद कृष्ण पक्ष की कृष्ण अष्टमी तिथि के चंद्रदेव अपना शीतल प्रकाश कान्हा के लिए लुटाते हुए अद्भुत एवं सुंदर दिख रहे हैं। ऐसे शीतल प्रकाश और ऐसी काली अंधियारी रात में होगा सांवरे सलोने नटवर नागर भगवान श्रीकृष्ण का जन्म। आज पूरा देश हर्षोल्लास के साथ मनाएगा श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का यह पावन पुनीत महोत्सव।
आज मुझे अपने नाना जी (स्व. श्री हनुमान शरण पांडेय जी जो जोखू बाबा के नाम से प्रसिद्ध हैं) और अपनी नानी मां (स्व. प्रभावती पांडेय) द्वारा गाये गये बहुत से भजन कीर्तन याद आ रहे हैं और यह भी कि बचपन में किस लगन के साथ किस हर्षोल्लास के हम लोग ननिहाल में इस पावन पर्व को इस महोत्सव को मनाते थे। एक माह पूर्व से ही हम तरह—तरह से श्रीकृष्ण जन्माष्टमी महोत्सव के लिए तैयारी शुरू कर देते थे।
मसलन चांदनी, चंदोवा, झालर, भगवान के श्रृंगार के लिए आभूषण सब को निकालना सबको दुरुस्त करना, कहां—कहां से कौन—कौन से फूल आएंगे, हर दिन अलग-अलग भोग प्रसादी क्या क्या चढ़ेगी, फूलों को कौन लाएगा और फलों की माला कौन गूंथेगा, हम लोग ये सब सोच-विचार कर अपने इस महोत्सव की तैयारी में जुट जाते थे।
मैं और मेरी दो बड़ी दीदियां मिथिलेश दीदी, मंजू दीदी, गीता मौसी नाना जी और नानी मां के निर्देशन में खूब धूमधाम से जन्माष्टमी के महोत्सव को मनाते थे। बालकृष्ण का पालना (झूला), चांदनी-चंदोवा, उनके छोटे—छोटे सुंदर वस्त्र सब अद्भुत ढंग से संग्रह था माई (नानी मां) के पास, भगवान का जन्म, उनकी छठी-बरही सब हम मिलकर मनाते थे, मुझे नन्हें कान्हा को झूला झूलाने में बहुत आनंद आता था।
प्रतिवर्ष जब भी ये पर्व आता है। मानो मेरा बचपन लौट आता है। मैं अपने को अपने नंद बाबा (मेरे नाना जी) और अपनी यशोदा मां (नानी मां) की शीतल-स्नेह छाया में पाती हूं। कानों में न जाने कितने ही गीत महाकवि सूरदास और महीयसी मीरा बाई के गूंजने लगते हैं जो नाना जी और माई (नानी जी) बड़ी ही तन्मयता से निरंतर गाते रहते थे। आह! कैसा सुंदर-सुखद और मनमोहक था।
ननिहाल का परिवेश, कितना शब्दातीत आनंद और कितनी शब्दातीत थी वह उत्सधर्मिता और उसमें कृष्ण की मधुर वंशी की तरह गुंजायमान हर क्षण गाए जाने वाले बहुत से लोकगीत, भजन-कीर्तन जो हर क्षण हमें बनाता गया कोमल-मसृण और साथ ही साहसी और उत्सवधर्मी भी और भरता गया हम सबके जीवन में नवजीवन, ऐसे में नहीं पनप पाया कोई भी कुभाव हममें और हम आशान्वित होकर भावमय सुंदर जीवन व्यतीत करते रहे और गाते रहे सूर, तुलसी और मीरा की रचनाएं और गुनगुनाते रहे कबीर और रहीम के दोहे और डूबते-उतराते रहे रसखान की कविताई में और खुलकर गाते रहे माई के बहुत से गीत— नटवर नागर नंदा भजो रे मन गोविन्दा।
केहू कहै नटवर केहू कहै नागर केहू कहै बाल मुकुंदा भजो रे मन गोविन्दा। नटवर नागर नंदा भजो मन गोविन्दा। आह! कितना मधुर, हृदयस्पर्शी और आनंददाई स्वर था माई का, उन्हीं से कुछ सीख पाई हूं गाना-गुनगुनाना और जीवन जीने की कला जो आज के इस उत्तर आधुनिक कठिन समय में भी मुझे सदैव बनाए रखती है भावमय और जीवंत।
डॉ मधु पाठक
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी)
आरएसकेडी पी.जी. कॉलेज जौनपुर