जेल मैनुअल में जातिगत भेदभाव: एक संविधान विरोधी सच्चाई

आनन्द देव
भारत के संविधान ने हर व्यक्ति को समानता और न्याय का अधिकार प्रदान किया है। यह केवल हमारे संवैधानिक ढांचे की बात नहीं है, बल्कि एक राष्ट्र के रूप में हमारी नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी भी है लेकिन जब ऐसी खबरें सामने आती हैं कि जेल मैनुअल में जातिगत भेदभाव किया गया है तो यह हमारे संवैधानिक मूल्यों पर गहरा सवाल उठाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने अभी कल यानी 3 अक्टूबर 2024 को ऐतिहासिक निर्णय में राज्यों के जेल मैनुअल में जाति के आधार पर काम के बंटवारे को असंवैधानिक करार दिया है।
यह एक महत्वपूर्ण फैसला है जो उन रूढ़िवादी और भेदभावपूर्ण मानसिकताओं को चुनौती देता है जो आज भी समाज के कई क्षेत्रों में घर किए हुए हैं। कोर्ट ने अपने निर्णय में साफ कहा कि यह न केवल भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि हमारे समाज की समग्र प्रगति में भी बाधा डालता है।
भेदभाव की जड़ें और संविधान की अनदेखी
जेल मैनुअल तैयार करने वाले अधिकारी, जिन्होंने संविधान की शपथ ली थी, उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात करेंगे लेकिन जब ऐसे अधिकारी जाति के आधार पर काम का बंटवारा करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने न केवल संविधान का उल्लंघन किया है, बल्कि समाज में व्याप्त भेदभावपूर्ण मानसिकता को भी बढ़ावा दिया है। यह सिर्फ जेल मैनुअल की बात नहीं है, बल्कि सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं में ऐसे ही कई संवैधानिक उल्लंघन प्रतिदिन होते हैं जिसका खामियाजा पूरा देश भुगत रहा है।
संविधान की अहमियत और गणतंत्र दिवस का सवाल
जब हमारा देश आजाद हुआ था तो हमारे नेताओं की सबसे बड़ी चिंता थी कि यह देश कैसे चलेगा। इसी चिंता को दूर करने के लिए संविधान सभा का गठन किया गया और कड़ी मेहनत और सहमति के बाद 26 नवंबर 1949 को हमारा संविधान तैयार हुआ जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ।
हमने इसे एक महत्वपूर्ण दिन के रूप में मनाया और गणतंत्र की स्थापना की लेकिन आज यह सवाल खड़ा होता है कि जब हम अभी तक संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात नहीं कर पाए हैं तो हर साल संविधान दिवस और गणतंत्र दिवस मनाने से क्या हासिल हो रहा है? क्या हम केवल एक औपचारिकता निभा रहे हैं, या हमें यह सोचने की जरूरत है कि हम इन अवसरों पर संविधान की वास्तविक आत्मा को कैसे अपनाएं?
भेदभाव से मुक्त समाज की ओर
आज सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने एक बार फिर हमें यह याद दिलाया है कि हम सभी को जाति, धर्म, पहनावा, और क्षेत्र के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए। यह निर्णय एक महत्वपूर्ण कदम है लेकिन असली बदलाव तब आएगा जब हम समाज के हर हिस्से में इस प्रकार के भेदभाव को खत्म करने का संकल्प लें।
समाज को दिशा दिखाता है संविधान
संविधान हमें केवल कानूनों का एक सेट नहीं देता, बल्कि यह हमारे समाज को एक दिशा दिखाता है। हमें इस बात का एहसास होना चाहिए कि संविधान का पालन करना केवल एक कानूनी जिम्मेदारी नहीं, बल्कि एक नैतिक दायित्व है। हमें जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र से ऊपर उठकर एक समावेशी और समानता पर आधारित समाज का निर्माण करना होगा।
उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय समाज को जागरूक करेगा और हम सभी मिलकर अपने संविधान की वास्तविक मूल्यों की स्थापना के लिए एकजुट होंगे।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here