अखिल विश्व के सबसे बड़े आध्यात्मिक और धार्मिक कुंभ मेले में लाखों-करोडों श्रद्धालु गंगा- यमुना तथा अदृश्य सरस्वती के संगम पर डुबकी लगाकर अपने पापों से मुक्ति पाते हैं और पितरों को भी तारते हैं। यह कुंभ मेला दुनिया का सबसे बड़ा मेला है। इस तरह कुंभ का पर्व हर 12 साल के अंतराल पर हरिद्वार में गंगा, नासिक में गोदावरी, उज्जैन में शिप्रा और प्रयागराज में त्रिवेणी संगम पर लगता है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार जब बृहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करता है तब कुंभ मेले का आयोजन होता है। दूसरे प्रमाण के तौर पर कुंभ मेले का पहला दस्ताबेज चीनी यात्री हआन टीसांग से हमें मिलता है जो 629-645 सी. ई. के दरम्यान भारत भ्रमण पर आया था।
उसने कुंभ मेले सहित अन्य विषयों पर भरपूर कलम चलाई है। इस सांस्कृतिक विरासत को यूनेस्को ने भी अपनी मान्यता प्रदान की है। गौरतलब बात है कि प्रयागराज का कुंभ मेला दुनिया के अन्य मेलों में सर्वाधिक महत्त्व रखता है। कुंभ का तात्पर्य यहाँ कलश से है और ज्योतिष शास्त्र में कुंभ राशि का भी यही चिह्न है। इस मेले की पौराणिक मान्यता अमृत मंथन से जुड़ी है।
कहा जाता है कि देवताओं और राक्षसों ने समुद्र-मंथन और उसके द्वारा प्रकट होने वाले सभी रत्नों को आपस में बांटने का निर्णय किया। इस मंथन के दौरान जो सबसे कीमती रत्न निकला वह था अमृत। ऐसे तो उस मंथन से कुल 14 रत्न निकले। सबसे पहले विष निकला जो भगवान शंकर सभी के रक्षार्थ ग्रहण किये जिससे उनका कण्ठ नीला पड़ गया।
इसी वजह से उनका एक नाम नीलकंठ भी पड़ा। इसी क्रम में आगे अमृत पाने की होड़ में देवताओं और राक्षसों में संघर्ष छिड़ गया। असुरों से अमृत बचाने के लिए भगवान विष्णु उसकी रक्षा का दायित्व देवराज पुत्र जयंत को सौंपे। हालांकि विष्णु की आज्ञा से सूर्य, चंद्र, शनि और बृहस्पति भी अमृत-कलश की दानवों से रक्षा के लिए भागे। इसी क्रम में अमृत की चार बूंदें चार स्थानों जैसे हरिद्वार, नाशिक, उज्जैन और प्रयागराज में छलक कर गिर गईं। कालान्तर में इन चार स्थानों पर विशेष संयोग पर 12 वर्षों में कुंभ मेले का आयोजन होता आया है।
दुनिया के कोने-कोने से इस मेले में आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या 12 से 13 करोड़ तक पहुँच जाती है। इस साल तो 15 करोड़ से भी ज्यादा श्रद्धालुओं के आने की उम्मीद है। गौरतलब है कि जब इतने बड़े पैमाने पर लोग वहाँ आते हैं तो बड़े-बड़े हॉस्पिटल की आवश्यकता ऐसे मौके पर पड़ती ही पड़ती है।
गौरतलब बात यह है कि हॉस्पिटल एक दिन में बनाये नहीं जा सकते। इस वैश्विक समस्या को लेकर संगम नगरी के लोगों ने आज कई वर्षों से एक एम्स हॉस्पिटल की माँग अनवरत जारी रखी है।
स्वरुप रानी हॉस्पिटल वहाँ का बहुत पुराना हॉस्पिटल है और इसी पर सबसे ज्यादा,क्या आम, क्या खास, हरेक का भार है। आज की जरूरतों और बीमारियों से निपटने योग्य आवश्यक उपकरण और अत्याधुनिक सुविधाएं तथा विशेषज्ञयता अब नाकाफी है। भारत सरकार को वहाँ अब एक एम्स हॉस्पिटल बनाने का फैसला ले ही लेना चाहिए।
आज दुनिया मंगल-चाँद पर जहाँ अपनी बस्तियाँ बसाने के खाके तैयार करने में मशगूल है, वहीं संगम नगरी के श्रद्धालु एक एम्स के लिए तरस रहे हैं। अत्याधुनिक स्वास्थ्य सेवा पाने के लिए वर्षों-वर्षों से दर-दर भटक रहे हैं, ये अफ़सोस की बात है। 73 प्रतिशत साक्षरता तथा 5482 किलोमीटर में फैली संगम नगरी अर्थात प्रयागराज एक मण्डल होने का भी उसे गौरव प्राप्त है।
साथ ही वहां हाईकोर्ट, एयरपोर्ट, खुसरो बाग, जवाहर प्लेनेटोरियम, ऑल सेन्ट्रल कैथेड्रल, हनुमान मंदिर, कंपनी पार्क, इलाहाबाद किला, म्यूजियम, विश्व प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी, केन्द्रीयविद्यालय, आस्था की नगरी, सांस्कृतिक स्थली के अलावा अन्य कीर्तिमानों से लदी-सजी कुंभनगरी, भारत के प्राचीनतम शहरों में से एक है। स्ववतंत्रता आंदोलन में यह शहर बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था।
मोती लाल नेहरू, चितरंजन दास, मदन मोहन मालवीय, जवाहर लाल नेहरू जैसे क्रान्तिकारी वहीं पैदा हुए थे। वहां स्थापित आनंद भवन की भूमिका को कौन नकार सकता है।
इस तरह बड़े-बड़े राजनेताओं को देश सेवा में देने वाला वह ऐतिहासिक शहर आज अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए हाथ पसार रहा है। प्रधानमंत्रियों के नाम से जाना जानेवाला वह शहर अपने वर्तमान प्रधानमंत्री से एक एम्स की माँग कर रहा है। मुझे लगता है कि अब केंद्र सरकार को उस एम्स की माँग को पूरा ही कर देना चाहिए, क्योंकि दुनिया के करोड़ों -करोड़ों श्रद्धालु वहाँ श्रद्धा की डुबकी लगाने आते ही रहते हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार प्रयागराज यानी संगम नगरी की कुल आबादी 59 लाख से अधिक थी। बीते इन वर्षों में आबादी में काफ़ी बढ़ोत्तरी हुई होगी, ऐसे में वहाँ की शहरीय स्वास्थ्य सेवाएं बिलकुल चरमरा गई होंगी।
इन्हीं सब बातों को लेकर वहाँ की आम जनता के अलावा हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष कंदर्प नारायण सिंह, पूर्व मंत्री डॉ. नरेन्द्र सिंह, न्यायमूर्ति सखाराम सिंह, प्रो. एल. एम. सिंह, पूर्व आईएएस श्रीराम यादव, तत्कालीन सांसद गोरखनाथ पाण्डेय, सिद्धार्थ नाथ सिंह, एडवोकेट रामचंद्र एस. यादव, अंजनी सिंह, प्रो. जीसी त्रिपाठी, एसपी सिंह जैसी महान विभूतियों ने पुरजोर तरीके से एम्स हॉस्पिटल की माँग कर चुकी हैं।
पूर्व केंद्रीय दिवंगत मंत्री अरुण जेटली ने भी एम्स के लिए पत्र लिखा था और अपनी अनुशंसा भी जताई थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट के अधिवक्ता अजय मिश्र ने निगम पार्षदों के बीच हस्ताक्षर अभियान चलाया था। वहाँ के वर्तमान कर्मठ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तथा डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्या भी एम्स हॉस्पिटल बनाने को लेकर संकल्पित हैं।
जब 2020-21 में जानलेवा कोरोना आया था तब भी देश में हॉस्पिटल की भारी कमी महसूस की गईं थी। तब कोरोना मौत बनकर बरसा था। उस दिल दहलाने वाले दृश्य पर यदि हम पुनः नजर डालें तो रुह काँप जाएगी। चीन के बुहान से कोरोना अखिल विश्व में पसरा था और करोड़ों लोगों की जान लिया था। यहाँ तक कि दफनाने के लिए श्मशान भूमि तब कम पड़ गई थी।
जलाने के लिए लकड़ियाँ कम पड़ गईं थीं। जनाजा उठाने के लिए कंधे कम पड़ गए थे। रोते-रोते लोगों के आँखों के आँसू सूख जाते थे। लाशें जेसीबी से खोदकर सीधे दफनाई जाती थीं। तब कितनी लाशें गंगा नदी में तैरती पाई गई थीं। सरकारी संसाधन नाकाफी साबित हुए थे। आक्सीजन सिलेंडर की भारी कमी महसूस की गई थी। आक्सीजन के अभाव में लोग दम तोड़ने लगे थे। सारे रिश्ते जैसे मर रहे थे। ऐसी भयावह
स्थिति न किसी ने देखी थी और न ही कल्पना की थी। हजारों-हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूर सहित अन्य अपने घरों को पैदल लौटे थे।कुछ प्रवासी तो रास्ते में मर गए और कुछ घर पहुँचने पर मर गये, क्योंकि पैर सूज चुका था, पैरों में छाले जो पड़ गए थे। उजड़ते घर और मौत की बारिश अपना तांडव दिखा रही थी।
मोहब्बत दिखाने के सारे तरीके मानों मर चुके थे।
आसमान और सूरज देखे महीनों गुजर चुके थे। घरों में कैद लोग और दूसरी बीमारियों के शिकार हो रहे थे। स्वयं को लोग आइसोलेट कर लिए थे परंतु चाहकर भी किसी के दु:ख में शामिल नहीं हो पा रहे थे। मानो सारे रीति-रिवाज, परंपरा, संस्कार महामारी जबरन छीन ली हो। उस वक्त अपनों का पास होना, मरने वालों के घर इकठ्ठा होना, दिलासा देना और गले लगकर रोना, कोरोना एक ही झटके में सारे दस्तूरों का गला घोंट दिया था। लोग फोन पर मातम मना लेते थे। करीब आने से हर कोई डरता था, अपना सगा ही क्यों न हो!
आम तौर पर सामान्य बीमारियों में लोग पहले शव को मर्यादा से घर लाते, सगे-संबंधियों को बुलाते, फूट-फूटकर रोते, स्नान कराते, कफन देते, अर्थी को कंधा देते, जनाजे में शिरकत करते लेकिन एक ही झटके में कोरोना ने सारी परंपराओं को चकनाचूर कर दिया।
इस क्रूर संक्रमित बीमारी ने लोगों को अंतिम दीदार तक नहीं होने दिया। उस घुटन भरे लम्हें को क्या कभी कोई भूल सकता है? मरते समय समझिये कि कोरोना पीड़ित व्यक्ति अंतिम साँस कैसे लिया होगा। कोई उसकी मदद किया होगा या नहीं किया होगा या ज्यादा तड़प-तड़प कर प्राण त्यागा होगा या अंत में कुछ कहने की अंतिम इच्छा रही होगी, बहुत सारे सवाल हमारी जेहन मैं आज भी गूँजते हैं और आँखों में तैरते हैं।
इस तरह उस वक़्त हास्पिटल की भारी कमी महसूस की गई थी। देखा जाय तो अचानक कोई भी सरकार कुछ कर नहीं सकतीं। आग लगने पर कुआँ नहीं खोदा जा सकता। हाँ, उस कमी पर अब राज्य सरकारों को साहसिक कदम उठाना ही चाहिये, ताकि किसी दूसरे वायरस से निबटा जा सके और होनेवाली मौत से बचा जा सके।
140 करोड़ आबादी वाले इस देश में आबादी के हिसाब से हॉस्पिटल अब होने ही चाहिए। देखा जाय तो किसी भी देश में स्वास्थ्य का अधिकार जनता का पहला बुनियादी अधिकार होता है। स्वस्थ नागरिक ही एक स्वस्थ्य व विकसित देश के निर्माणकारी तत्व होते हैं। हमारी तो सदियों से धारणा रही है कि पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में हो माया तथा जान है तो जहान है। निःसंदेह अच्छी सेहत ही सबसे बड़ा खजाना है।
सेहत को लेकर कोई भी असावधानी किसी को भी मृत्यु के करीब ले जा सकती है, इसलिए हर उस चीज से परहेज करना ही उचित है जिससे सेहत को नुकसान पहुँचता हो। बड़े ही दुःख के साथ कहना पड़ रहा है क़ि आजादी के सात दशक बाद भी आबादी के मुताबिक हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाओं में बेहतर सुधार नहीं हो सका है।
गांव के सुदूर इलाकों में जो सरकारी अस्पताल हैं, उनका तो भगवान ही मालिक है।
इसी के चलते मैं खुद गांव थोड़े समय के लिए ही जाता हूँ और वापस मुंबई लौट आता हूँ। स्वास्थ्य को लेकर मैं वहाँ खूब चिंतित रहता हूँ। कुछ साल पहले एक अपने रिश्तेदार को लेकर जौनपुर सरकारी अस्पताल गया था। हालत उनकी सीरियस थी। रविवार का दिन था।
उन्हें देखने के लिए उस सदर हॉस्पिटल में उस दिन एक भी नेरोलॉजी डॉक्टर नहीं थीं। कालान्तर में वह इस दुनिया को अलबिदा कह गए। ये तो अंदर की सच्चाई है। 2011 की जनगणना के मुताबिक जौनपुर जिले की आबादी 4,476072 थी जो अब बढ़कर और अधिक हो गई होगी। इस तरह वहाँ हर जिले की कहानी एक जैसी ही है।
अन्ततोगत्वा मैं ये कहना चाहता हूँ कि सरकार को बड़े -बड़े हॉस्पिटल बनाना चाहिए, ताकि एक अच्छे हॉस्पिटल के अभाव में नागरिक दम न तोड़ें। निजी और महंगे हॉस्पिटल में इलाज के दौरान अपनी गाढ़ी कमाई गंवाने से बचें। सरकार गरीब लोगों की माई-बाप होती है। अब आबादी के मुताबिक सभी राज्यों में बड़े-बड़े हॉस्पिटल बनें ताकि लोग दुनिया के और अच्छे देशों की भांति सुखमय जीवन का आनंद ले सकें।
रामकेश एम. यादव ‘सरस’
(लेखक) मुम्बई