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नौकरी, आरक्षण, संविधान खतरे के नारे की हवा निकली
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पार्टी नेतृत्व को सेंट्रलाइज की जगह डिसेंट्रलाइज करना चाहिये
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उपचुनाव की हार चेतावनी, आत्ममंथन करें सपा मुखिया
विधायक—सांसद के साथ व्यक्तिगत जिद छोड़ प्रतिभा पर दें टिकट
पार्टी के साथ परिवार पर भी करें विश्वास, उन्हें भी थोड़ा पावर दें
सपा की विधानसभा उपचुनाव में हार: कारण एवं नेतृत्व के दृष्टिकोण पर विचार
समाजवादी पार्टी (सपा) उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक महत्वपूर्ण ताकत रही है।
पार्टी का सामाजिक आधार और उसकी प्रगतिशील नीतियां इसे राज्य के बड़े समुदायों के बीच लोकप्रिय बनाती रही हैं। हालांकि हाल के विधानसभा उपचुनावों में सपा की हार ने पार्टी की रणनीति और नेतृत्व शैली पर सवाल खड़े कर दिए हैं। विशेष रूप से अखिलेश यादव के व्यवहार और नेतृत्व की शैली को लेकर चर्चा तेज हो गई है।
संविधान और आरक्षण को खतरें में बताकर जो लोकसभा चुनाव में फेंक नैरेटिव गढ़ा गया। इस जुमले को कांग्रेस का भी साथ मिला, तब जाकर समाजवादी पार्टी 37 सीट के आकड़े पर पहुंचीं। वास्तव में यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। इस अप्रत्याशित जीत में कांग्रेस के कार्यकर्ता और वोटरों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रहीं।
मगर इस विजयरथ को आगे बढ़ाने की जगह सपा मुखिया फेंक जनाधार के मद में चूर हो गए। उन्हें लगा कि हमारी गुप्त रणनीति के कारण ही यह सफलता मिली लेकिन यह सोच उन्हें जमीनी हकीकत से दूर करती गई। संगठन और परिवार के मुंह पर भी जीत के बाद ताला लग गया। यह चीज यहीं रूकी नहीं सपा मुखिया मदांध हो गये जिनकी सलाह गंभीरता से सुनते थे उन्हें भी नजरअंदाज कर दिया।
वह पार्टी की आगे की रणनीति, एजेंडा और विजन बनाने की जगह कुछ ऐसे दोस्त बनाए जो तो उन्हें तत्कालिक सुख दिलाते थे लेकिन संगठन को बेड़ा गर्ग करने के लिए। ऐसा नहीं की सपा में यह पहली बार हुआ है। इसके पहले भी अमर सिंह जैसे लोग संगठन में आकर अपनी हुकुमत बरकरार रखे थे।
ऐसे में अखिलेश यादव को अपने जन्मदिन की संख्या बताने की जगह पार्टी को एक परिपक्व संरक्षक के रूप में अपनी पहचान बनानी चाहिए थी, ताकि हर कोई उनके चाल, चरित्र और चेहरे पर शक ना करें। किसी में कोई भय, लालच और समझौतावादी प्रवृत्ति न पैदा हो। स्वार्थ की जगह प्रतिभा को पार्टी में महत्व देना चाहिए, ताकि किसी भी परिवार की महिला भी पार्टी में निस्वार्थ भाव से संगठन की मजबूती के लिए काम करें।
साथ ही उन्हें बाहर भी सम्मान मिले की सपा नेत्री है तो आचरण से सही होगी और ऐसे लोग समाज के आईकान बनें। इससे पार्टी की विश्वसनीयता बढ़ेगी। उन्हें किसी पार्टी के विधायक और सांसद को किसी छोटी मोटी बात पर सबक सिखाने की सोच से दूर हटना पड़ेगा तभी वास्तविक रूप से उन्हें सम्मान मिलेगा और पार्टी का जनाधार बढ़ेगा।
हार के प्रमुख कारण
1. विपक्ष और भाजपा की रणनीति
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की मजबूत राजनीतिक पकड़ सपा के लिए लगातार चुनौती बनी हुई है। भाजपा की संगठित जमीनी रणनीति, मजबूत कैडर बेस और धर्म एवं जाति आधारित ध्रुवीकरण की राजनीति ने सपा के मतदाताओं को कमजोर किया। भाजपा ने उपचुनावों में विकास, कानून-व्यवस्था और हिंदुत्व को प्रमुख मुद्दा बनाकर जनता को अपने पक्ष में किया। बटेंगे तो कटेंगे का काउंटर सपा मुस्लिम प्रत्याशियों की संख्या बढ़ाकर कर रही है।
इसका रियक्शन भी हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण से उसे झेलना पड़ेगा। उप्र के उपचुनाव में भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व पूर्ण रूप से योगी आदित्यनाथ पर छोड़ दिया था। कोई भी बड़ा नेता चुनाव प्रचार में नहीं आया। 9 में 7 सीट जिताकर योगी ने भाजपा केंद्रीय नेतृत्व को अपनी ताकत का एहसास करा दिया।
अगर हम 2027 के विधानसभा के चुनाव का विश्लेषण करें तो सपा कोई सामाजिक विजन के साथ नहीं उतरी तो वह 100 का भी आकड़ा पार नहीं कर सकती। उसे अधिक से अधिक महिला प्रत्याशी को उनकी प्रतिभा के आधार पर उतारना होगा। साथ ही पार्टी में महिलाओं के प्रति कड़े अनुशासन को लागू करना होगा, ताकि वह कहीं भी संगठन की मजबूती के लिए बैठकों और प्रचार के लिए आसानी से जा सकें।
2. संगठनात्मक कमजोरी
सपा का संगठनात्मक ढांचा अपेक्षाकृत कमजोर दिखाई देता है। पार्टी के पास जमीनी स्तर पर सक्रिय कार्यकर्ताओं की कमी और कुशल प्रबंधन का अभाव है। कई क्षेत्रों में सपा के उम्मीदवार स्थानीय स्तर पर मजबूत जनाधार स्थापित करने में असफल रहे।
पहले कोई भी कार्यकर्ता अगर मुलायम से नाराज है तो शिवपाल से जुड़ता था या किसी यादव परिवार के सदस्य बनकर संगठन को मजबूत करता था। उस समय किसी भी पार्टी पदाधिकारी के घर खुशी और गम में परिवार को कोई भी व्यक्ति प्रतिनिधि बनकर शरीक होता था।
अब पार्टी इससे दूर होकर पूंजीपति को दोस्त बना रही है। इस कारण जमीनी स्तर के कार्यकर्ता संगठन से दूर होते जा रहे हैं। संगठन के जितने भी अनुसांगिक विंग है, वह अपने संबंधों और स्रोतों को सीमित कर दिए है। कारण कोई भी नेता किसी को संगठन में पद या टिकट दिलाने की गारंटी नहीं ले सकता।
अब सारे निर्णय सपा मुखिया अखिलेश यादव लेते हैं। वह अपनी कोई भी रणनीति का खुलासा परिवार के सदस्यों के साथ नहीं करते चाहे वह डिंपल यादव ही क्यों न हो? इससे संगठन कमजोर हो रहा है। अखिलेश यादव के इनर आरबिट में चापलूसों और भाटों का घेरा बन गया है जो उन्हें पार्टी की हकीकत से दूर रखकर वही बताते हैं जो उनको पसंद है।
कहने का अभिप्राय यह है कि खाता न बही, अखिलेश भैया जो चाहें, वही सही। आज पार्टी में शिवपाल यादव, धर्मेद्र यादव या किसी भी भाई भतीजे के पास वह पावर नहीं है कि वह किसी को पद या टिकट का भरोसा दिला सके। बस एक प्रो. राम गोपाल यादव हैं जो अपनी डिप्लोमेसी के साथ अपनी पकड़ मजबूत तो नहीं कह सकते, बस बनाये हुये हैं, क्योंकि शिवपाल यादव को लगाम देने के लिए उनका साथ सपा मुखिया जरूरी समझते हैं। इससे मुलायमवादी कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट रहा है।
अगर यही हाल रहा तो टेक्नोलाजी के दौर में जिस तरह सड़कों से साइकिल बाहर हो गया, सपा को भी अपना चुनाव चिह्न बदलने के लिए चुनाव आयोग के पास अर्जी लगानी पड़ेगी। दूसरा कारण सपा को भी परिवार से निकलकर अन्य यादवों के घर को भी विकसित करना होगा, क्योंकि उनका समाज जिसे नेता मानता है, उसकी नीयत पर अगर शक हो तो उसे दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेंक भी देता है। आज किसी भी दल में कोई भी जाति का नेता सर्वसमाज का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा है।
हर नेताओं ने मायाजाल बना रखा है कि इसमें हमारे परिवार के अलावा कोई और न फंसे। मगर ऐ पब्लिक है सब जानती है। चुनाव में स्टार प्रचारकों को इतनी लंबी फेहरिस्त बना देते हैं जिन्हें बोलने भी नहीं आता है। वह भी सपा का स्टार प्रचारक बन जाता है। पार्टी के प्रवक्ताओं का परिपक्व न होना भी पार्टी को नुकसान पहुंचाता है।
3. सहयोगी दलों से समन्वय का अभाव
2019 के लोकसभा चुनावों के बाद सपा और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का गठबंधन टूट गया जिससे पार्टी का आधार कमजोर हुआ। उपचुनावों में सपा को अन्य विपक्षी दलों के साथ मजबूत तालमेल की आवश्यकता थी लेकिन यह पहल नहीं की गई।
उन्हें लगा कि कुछ छोटे दलों को मिलाकर जो ओबीसी में अलग-अलग समाज का प्रतिनिधित्व करते है, उनके साथ मिलकर वोटबैंक बनाया जा सकता है। मगर इसके दूरगामी परिणाम नहीं निकलेंगे। यह किसी भी मंजिल तक शार्टकट में पहुंचा सकता है लेकिन वहां लंबे समय तक ठहरा नहीं सकता है। ऐसे में पीडीए के नारे को ईमानदारी के साथ अमल में लाने की जरूरत है।
साथ ही अपनी बात, वादा और समझौता में भी इमानदारी दिखाने की जरूरत है। तन, मन और धन के लालच में किसी के साथ वादाखिलाफी और धोखे की राजनीति पर लगाम लगाने की जरूरत है। सपा मुखिया को यह भी सोचना होगा कि वह बलवान नहीं हैं, समय बलवान होता है। फेंक नैरेटिव और झूठे वादे ज्यादा दिनों तक नहीं टिकते। लोकसभा में बढ़त सपा को इसलिए मिल गई की बसपा मोदी के इशारे पर चुनाव मैदान में थी।
इससे दलित और ओबीसी बसपा समर्थकों को लगा कि अगर हमारा वोट खराब हुआ तो हो भाजपा 400 पार हो जाएगी तो देश का संविधान बदल देगी। आरक्षण खत्म कर देगी। कई कानून बनाकर दलित और ओबीसी को विकास से दूर कर देगी, इसलिये वह वोट भाजपा की तरफ न जाकर सपा और कांग्रेस के खाते में चले गये।
नहीं तो अखिलेश यादव के सभी भाषणों को उठाकर देख लें, चुनाव में उन्होंने संविधान, आरक्षण, अग्निवीर, नौकरी के मुद्दे के अलावा कोई विजनरी भाषण नहीं दिया है। दूसरी बात सभाओं की भीड़ का आकलन वोट से नहीं किया जा सकता।
भीड़ तो नेताओं के स्वागत और उन्हें दिखाने के लिए कई जिलों से आयोजक बुलाते है पैसे पर। लोकसभा चुनाव में जितने लोग संविधान की किताब को लेकर घूम रहे थे, क्या उनको संविधान और उसकी प्रस्तवाना के बारे में कुछ नहीं पता है? संविधान की पुस्तक कितने पेज की है, वह आज भी नहीं बता सकते। इस मद में चूर होकर अखिलेश यादव कांग्रेस को उपचुनाव में एक भी सीट नहीं दिया।
इससे कांग्रेस पार्टी की तो नहीं कह सकते, मगर समर्थक वोटरों में आक्रोश था। कांग्रेस तो अपना जनाधार मजबूत करने के लिए सपा का साथ चाहती है। वह बड़ी पार्टी है, उसकी सोच बड़ी है, इसलिए वह क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात की नीति पर चल रही है, इसलिए सपा को उत्पात नहीं मचाना चाहिए।
4. जातिगत समीकरणों का असंतुलन
उत्तर प्रदेश की राजनीति में जाति एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सपा यादव और मुस्लिम वोट बैंक पर निर्भर रही है लेकिन इस बार इन वर्गों में भी पार्टी का प्रदर्शन कमजोर रहा।
भाजपा ने गैर-यादव पिछड़ों और दलितों को अपनी ओर आकर्षित कर सपा की स्थिति को और कठिन बना दिया। उत्तर प्रदेश में सपा ने दलित में पासी को प्रमोट किया जबकि उसे पता नहीं की खटिक, धोबी और केवट जाति पूरे देश में पाई जाती है।
हालांकि उप्र में केवट अतिपिछड़ी जाति में आती है। इस बार तो वह अपना वोट खराब नहीं की सपा कांग्रेस को ही दी लेकिन इस जाति की उपेक्षा करने वाला कोई भी राजनीतिक दल निर्णायक जीत की स्थिति में नहीं पहुंच सकता। इसी तरह ओबीसी में मौर्या, कुर्मी, वैश्य की उपेक्षा कर कोई भी दल लीडिग पार्टी नहीं बन सकती। पूर्वांचल में आजतक समाजवादी पार्टी कुर्मी, कोइरी, निषाद, राजभर और कुछ जातियों को जोड़ नहीं पाई है।
वर्तमान राजनीति में मुसलमानों की रहनुमाई करने वालों से सत्ता दूर रहेगी। आज के परिवेश में वहीं सफल होगा जो मुसलमानों को लीड कराने की जगह उन्हें सिर्फ अपने साथ जोड़े रखे। मुसलमानों के दस नेता की जगह एक नेता के हाथ में लीडरशिप दे। आज देश को जाति के साथ विकास की बात सोचने वाले राजनेता की जरूरत है जहां बुद्धजीवियों की नजर में नरेंद्र मोदी की जगह कोई दूसरा नेता जगह नहीं ले सकता है। हम लालकृष्ण आडवाणी के प्रधानमंत्री न बनने पर अफसोस तो कर सकते हैं। अगर मान लीजिए कि वह बन भी जाते तो मोदी का भविष्य और काम देश के साथ कैसे जुड़ता? इस पर भी हमें ध्यान देने की जरूरत है। मोदी ने जो काम 10 साल में कर दिया, वह आश्चर्यजनक है।
अखिलेश यादव का व्यवहार और नेतृत्व
1. राजनीतिक सक्रियता की कमी
अखिलेश यादव के नेतृत्व को लेकर यह आरोप लगता रहा है कि वे जमीन से जुड़े मुद्दों पर पर्याप्त सक्रिय नहीं रहते। उनकी राजनीतिक रणनीतियां अधिकतर चुनावों के आस—पास ही सक्रिय होती हैं। उपचुनावों में उनका प्रचार अभियान अपेक्षाकृत धीमा और प्रभावहीन रहा।
टिकट को लेकर प्रत्याशियों में कांफीडेंस की कमी रहती है। इससे चुनाव अभियान प्रभावित होता है। उनके सबसे बड़ी कमजोरी उनकी जिद है। अगर कोई उनकी बात नहीं मानता है तो वह तुरंत उसे सबक सिखाने की ठान लेते हैं। यहीं तक नहीं उसे झुकाने के लिए विकल्प भी तैयार कर लेते हैं।
यह सोच एक अच्छे संगठनकर्ता के लिए ठीक नहीं है। पार्टी को जो परिवार मानकर चलेगा, उसकी गल्ती को माफ करेगा। वही लंबे समय तक मजबूत नेतृत्व चला सकता है। कुल मिलाकर खास तौर से पार्टी नेतृत्व को विकसित करना होगा। यह विकास परिवार के अलावा अन्य जाति के प्रतिभावान नेताओ से। पार्टी के सभी घटकों के नेतृत्व को चुस्त-दुरुस्त करना होगा, ताकि पार्टी में नई जान डाली जा सके।
2. संगठन को मजबूत करने में विफलता
अखिलेश यादव अपनी पार्टी के भीतर अनुशासन और संगठनात्मक मजबूती सुनिश्चित करने में असफल रहे हैं। सपा में आंतरिक गुटबाजी और कार्यकर्ताओं में उत्साह की कमी देखी गई। कोई शिवपाल का आदमी और तो कोई धर्मेंद्र यादव तो कोई रामगोपाल की शरण में हैं।
यह गुटबाजी सपा को कमजोर कर रही है। परिवार भी अखिलेश यादव पर विश्वास नहीं करता। कारण की वह परिवार में सबसे ज्यादा बुद्धिमान अपने को ही मानते हैं। शायद उन्हें यह नहीं पता कि शिवपाल यादव और परिवार के बंधु उन्हें मजबूत नहीं तो कमजोर तो 100 फीसदी कर सकते हैं। इसके लिए सभी परिवार वालों को बैठकर गिलवे शिकायत दूर करके बात करनी चाहिए। सभी को एक नए सिरे से पार्टी की मजूबूती में लगना चाहिए।
साथ ही अगर कांग्रेस को सच्चा साथी मान रहे हैं तो साथ इमानदारी से निभाए। उपचुनाव में कांग्रेस को एक भी सीट न मिलने के कारण बसपा और अन्य दलित और ओबीसी जाति का जो वोट था। फिर सपा की ओर न जाकर भाजपा में वापस चला गया। इसके मूल में सिर्फ गलती है तो अखिलेश यादव की। उन्हें घमंड हो गया कि हम अपने बल पर चुनाव जीते हैं। इस भ्रम से सपा को निकलकर चाचा, भतीजे, भाई को भी विश्वास में लेना चाहिए।
सपा मुखिया को परिवार घङ़ी की सुई की तरह चलानी चाहिए। परिवार का जब बड़ा और छोटा सदस्य एक साथ हो जाएगा तो विरोधियों के 12 तो अपने आप बज जाएंगे। पार्टी यादव से हटकर कुछ और को जोड़ने का फार्मूला तो अपना रही है लेकिन वह नकल बसपा की कर रही है। बसपा जिन ओबीसी की जातियों के बल पर सत्ता हासिल किया था, उन्हीं जाति को जोड़ने का काम कर ही है।
बसपा ने मिर्जापुर के भागवत पाल, मऊ के दयाराम पाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाया लेकिन पावर नहीं दिया। उसी तर्ज पर सपा भी श्याम लाल पाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाया। यह भी लायन विद् आउट टीथ है। पद है मगर पावर नहीं। कोई निर्णय नहीं ले सकते, इसलिए जिसे बनाये, उसे कुछ तो अधिकार दें, ताकि उनके समाज के लोग पार्टी में उसका वजूद समझ सकें।
3. स्थानीय नेतृत्व को सशक्त न करना
सपा नेतृत्व अक्सर अपने उम्मीदवारों और स्थानीय नेताओं को निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं देता जिससे पार्टी का जमीनी स्तर कमजोर पड़ता है। अखिलेश यादव पर यह आरोप लगता रहा है कि वे अपने परिवार और करीबी नेताओं पर अधिक निर्भर रहते हैं। जिले के अध्यक्ष और पदों को भी यादव मुक्त करना चाहिए, ताकि लोगों को लगे की सभी जाति और समाज को एक नजर से देखने वाली पार्टी है।
वास्तव में यहां सबको बराबर का दर्जा मिलता है। खास तौर से सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को तो सम्मान मिले। ऐसे लोगों के बीच में जो प्रतिभा है, उसका पार्टी के हित में उपयोग करने की जरूरत है। जब आप अंदर से मजबूत रहोगे तभी डिप्लोमेसी चला सकते हो, अन्यथा सारे तीर हवा में जाएंगे। आपके पास बचेगी सिर्फ गांडीव ही।
4. सकारात्मक एजेंडा की कमी
अखिलेश यादव ने उपचुनावों में भाजपा के खिलाफ नकारात्मक प्रचार पर अधिक जोर दिया लेकिन खुद का कोई ठोस सकारात्मक एजेंडा पेश नहीं किया। इससे मतदाताओं को सपा के पक्ष में प्रेरित करने में कठिनाई हुई। साथ में नवयुवकों के नौकरी, रोजगार पर चर्चा तो की लेकिन इसके उपाय नहीं बताए कि हमारी सरकार आएगी तो हम किस तरह की योजना बनाकर रोजगार देंगे। सरकारी नौकरी वालों के पेंशन और उम्र सीमा बढ़ाने पर भी कोई जोर नहीं दिया। सिर्फ आरक्षण, संविधान बचाने, अपराध बढ़ने, मुस्लिमों के शोषण और बुलडोजर बाबा पर बात करते रहें।
उन्हें सारे समस्याओं के हल को भी बताना चाहिए था कि उनकी सरकार क्या करेगी। अग्निवीर योजना के पेंशन पर बवाल खड़ा करने वाली सपा उसके सर्विस कंडीशन का सच नहीं बता सकी। वास्तव में ये युवाओं को अनुशासन, राष्ट्र चिंता और देशभक्ति के लिए ट्रेंड करने की योजना है। चुनाव में सच न बोलें तो कम से कम अर्धसत्य तो बोलें, ताकि जनविश्वास कायम रहे।
भविष्य की दिशा
1. संगठनात्मक पुनर्गठन
सपा को अपनी जमीनी संगठनात्मक संरचना को मजबूत करना होगा। पार्टी को कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने और स्थानीय स्तर पर सक्रिय नेतृत्व तैयार करने की जरूरत है। संगठन चाहे जिले का हो या राष्ट्रीय स्तर का उसमें उसी को पद मिले जो समाजवाद को ठीक से जानता है।
लोहिया जी पूरे जीवनकाल में धोती, कुर्ता और जैकेट पहनते थे। कौन सा लाल टोपी वाला है जो लोहिया के आदर्शों पर चलता है। सपा मुखिया अखिलेश यादव समेत पूरे परिवार की बात करता हूं मैं। सभी होटल कल्चर में डूबे हुए हैं। अधिकतर लोग न संविधान की प्रस्तवाना को जानते हैं और न ही समाजवाद को। इसके लिए उन्हें सपा बौद्धिक प्रकोष्ठ से प्रशिक्षण लेने की जरूरत है।
2. सामाजिक आधार का विस्तार
सपा को यादव-मुस्लिम समीकरण से बाहर निकलकर अन्य पिछड़ा वर्ग, दलित और सवर्ण समुदायों को भी जोड़ने के प्रयास करने चाहिए। उन्हें सभी जातियों के लोगों को जोड़ना चाहिए। साथ ही सभी जातियों के नेताओं को पद और पावर देकर अपने समाज में काम करने को भेजना चाहिए।
ऐसे समुदाय के आर्थिक रूप से कमजोर नेता को विधान परिषद और राज्यसभा से भेजना चाहिए, ताकि समाज में एक अच्छा संदेश जाए। कहा जाता है कि बूंद-बूंद से तालाब भरता है। सत्ता के लिए एक-एक वोट जरूरी है।
3. सकारात्मक राजनीतिक एजेण्डा
पार्टी को रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। मतदाताओं को यह भरोसा दिलाना जरूरी है कि सपा राज्य की समस्याओं का ठोस समाधान दे सकती है।
जनहित में किसानों, मजदूरों और बेरोजगारों के लिए एक एजेंडा बनाकर बताना चाहिए कि हम ऐसे समस्याओं का निराकरण करेंगे। ज्ञान और एक्स पर पोस्ट करने में जमीन-आसमान का अंतर है। अगर सपा को राष्ट्रीय पार्टी बनना है तो इस पर विचार करना होगा। दल और नेता को तोड़कर राजनीति की लम्बी पाली नहीं खेली जा सकती है।
4. नेतृत्व शैली में बदलाव
अखिलेश यादव को एक सक्रिय और दृढ़ नेता के रूप में खुद को साबित करना होगा। उन्हें केवल चुनावी राजनीति तक सीमित न रहकर जनता के बीच लगातार मौजूद रहना होगा। उन्हें नेताओं को अल्टीमेटम देना होगा कि मुझसे मिलने आओ तो बटरिंग के लिए नहीं।
पार्टी के हित में कोई प्लान लेकर आओ जिससे पार्टी मजबूत हो। जो प्लान अच्छा लेकर आया, अगर प्लान हिट हुआ तो उसे पार्टी में सम्मान मिलेगा। इसी के बाद चाटुकारों की भीड़ कम हो जाएगी। अच्छे सलाहकार पार्टी कार्यालय पर दिखाई देंगे जिससे पार्टी को सही नेतृत्व के साथ सही दशा और दिशा मिलेगी।
खास तौर से महिला कार्यकर्ताओं के साथ विनम्रता और संस्कारिक रूप से पेश आने की जरूरत है। सपा को जैसा गुंडों और बदमाशों की पार्टी का आरोप अन्य पार्टी लगाती है, उन्हें भी अपने अच्छे चरित्र का संदेश नेताओं को देना होगा।
कहने का आशय यह है कि समाजवादी पार्टी के लिए हाल के विधानसभा उपचुनाव में हार एक चेतावनी है। यह पार्टी के लिए आत्ममंथन का समय है।
अखिलेश यादव को अपने नेतृत्व की खामियों को पहचानकर संगठनात्मक बदलाव लाना होगा। उत्तर प्रदेश में भाजपा का मुकाबला करने के लिए सपा को केवल रणनीतिक गठबंधन पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, बल्कि एक व्यापक और समावेशी राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाना होगा। साथ ही अपने ऊपर लगे दाग को भी धोना होगा।
डॉ. सुनील कुमार
राजनीतिक विश्लेषक एवं
सहायक प्रोफेसर, जनसंचार विभाग