कैबिनेट से पारित होने के बाद लोकसभा में पेश किया गया ‘वन नेशन’ वन इलेक्शन’ विधेयक कुछ और नहीं, बल्कि लोकतंत्र के खात्मे की दिशा में एक और कदम है। यह न केवल देश की बनी-बनायी फेडरल व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर देगा, बल्कि यूनिटरी व्यवस्था का एक ऐसा मॉडल तैयार करेगा जो तानाशाही के लिए बिल्कुल मुफीद होगा। लोकतंत्र को कब्र का रास्ता दिखाना इसकी पूर्व शर्त है। अपने हर रूप में यह जनविरोधी है। यह पहले से ही कमजोर की जा रही लोकतांत्रिक संस्थाओं को और कमजोर कर देगा। आखिर में लोक और तंत्र के बीच इतनी बड़ी खाई पैदा कर देगा जिसको पाट पाना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल होगा।
अगर कोई लोकतंत्र को महज चुनाव तक सीमित कर के देखता है तो उसकी समझ पर महज तरस ही खाया जा सकता है। लोकतंत्र एक जीवन पद्धति का नाम है। जो केवल संस्थाओं तक सीमित नहीं रहता है, बल्कि नागरिक जीवन का अहम हिस्सा बन जाता है। यह जितना तार्किक होता है, उतना ही समावेशी और सेकुलर भी।
यह वह व्यवस्था है जो समाज के आखिरी पायदान पर बैठे शख्स की न केवल बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की गारंटी करता है, बल्कि उसके सपनों को भी नया परवाज देने का काम करता है, इसलिए किसी देश और उसके शासन में लोकतंत्र को महज चुनावों तक सीमित करके देखना लोकतंत्र की पूरी आत्मा को ही मार देना है।
देश में जब आजादी मिली तो राष्ट्र निर्माताओं के सामने सबसे बड़ा कार्यभार यही था कि लोकतंत्र को विस्तारित करने के साथ ही उसे और कैसे गहरा बनाया जाय? देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू लाल किले की प्राचीर से जब यह कहते हैं कि समाज के आखिरी पायदान पर बैठे शख्स के भी आंसू पोंछे जाएंगे तो वह लोकतंत्र को वहां तक पहुंचाने के अपने संकल्प को दोहरा रहे होते हैं। गांधी अपने सूत्र वाक्य में किसी शख्स द्वारा किसी मौके पर फैसला न ले पाने की स्थिति में समाज के आखिरी व्यक्ति के चेहरे को याद करने की सलाह देते हैं। इस बात की सलाह देते हैं कि फैसला लेने से पहले उस शख्स को होने वाले फायदे और नुकसान का आकलन कर ले तो उससे सही फैसला लेने में आसानी हो जाएगी।
इसमें न केवल पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था का जनता के प्रति जवाबदेही का संकल्प छिपा है, बल्कि नागरिकों से बने समाज में एक नागरिक की दूसरे नागरिक से जुड़ी संवेदना की भी झलक मिलती है। सरकार बार-बार चुनाव में आने वाले खर्चे और समय की बचत की दुहाई दे रही है। दोनों ही बातें फिजूल हैं। वास्तविकता से इनका दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। सच यह है कि समय बढ़ने के साथ ही चुनाव में आने वाले खर्चों को पार्टियों और उससे जुड़े तंत्र ने इतना बढ़ा दिया है कि अब आम आदमी के लिए चुनाव लड़ना हिमालय पर चढ़ने से कम नहीं है।
लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए भी न्यूनतम 15 करोड़ और विधानसभा के लिए न्यूनतम 4 करोड़ रुपये तो होने ही चाहिए। यानी चुनाव लड़ने वाले का करोड़पति होना पहली शर्त है। तात्कालिक तौर पर सरकार को ईवीएम की मौजूदा संख्या से तीन गुना ईवीएम का निर्माण करवाना होगा जो अपने आपमें एक बड़ा खर्च होगा। साथ ही इन चुनावों के दौरान सरकार अगर अपने विज्ञापनों में कटौती कर दे तो बड़े खर्चे को बचाया जा सकता है।
विडंबना देखिए जिस चुनाव को एक साथ कराने की बात की जा रही है, उसमें कमेटी ने पंचायती राज चुनाव को लोकसभा और विधानसभा के चुनावों के 100 दिन बाद कराए जाने की बात कही गयी है। यह अपने आप में इस पूरी अवधारणा को ही खारिज कर देता है, क्योंकि वह पूरी प्रक्रिया फिर उसी तरह से अलग होगी।
यानी एक साथ 100 दिनों के अंतर में देश में दो चुनाव कराए जाएंगे जो इस पहल के पीछे सरकार के पूरे तर्क को ही खारिज कर देते हैं।
अब उसी का बहाना बनाकर लोकतंत्र को और सीमित करने की कोशिश की जा रही है। जबकि सच्चाई यह है कि चुनाव में और कुछ हो या न हो जनता शिक्षित और प्रशिक्षित ज़रूर होती है। उसमें न केवल अपने अधिकारों को लेकर जागरूकता आती है, बल्कि सरकार की जवाबदेहियों को लेकर वह और ज्यादा चौकस हो जाती है। कहां तो ‘राइट टू रिकॉल’ की बात की जा रही थी और कहां अब अच्छा करें या फिर बुरा सरकारों को 5 साल की गारंटी देने की तैयारी की जा रही है। जिस जनता को सरकार के और करीब लाने की बात की जा रही थी, उसको उससे और दूर ले जाया जा रहा है।
अभी तक चुनाव में जितना पार्टियों की भूमिका होती है, उससे कम प्रत्याशियों की भूमिका कतई नहीं होती है। किसी भी क्षेत्र में प्रत्याशी ही अपनी पार्टी की अगुवाई करते हैं। वही उसका चेहरा होते हैं। लेकिन अगर लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने लगे तो किसी भी एक लोकसभा क्षेत्र में न्यूनतम एक पार्टी की तरफ से कम से कम 7 से 8 प्रत्याशी होंगे। अगर इसी तरह की पांच से 7 पार्टियां चुनाव लड़ रही हैं तो प्रत्याशियों की यह संख्या 35 से लेकर न्यूनतम 40 तक हो जाएगी। ऐसे में इतने प्रत्याशियों को याद रख पाना किसी भी मतदाता के लिए बहुत मुश्किल होगा।
इसका नतीजा यह होगा कि चुनाव प्रत्याशी नहीं बल्कि पार्टियों के आधार पर होने शुरू हो जाएंगे। नतीजतन आने वाले दिनों में प्रत्याशियों की भूमिका और जवाबदेही दोनों हाशिये पर चले जाएंगे।
सरकार का तर्क है कि 1971 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते थे। लिहाजा एक बार फिर हमें उसी पद्धति पर चले जाना चाहिये लेकिन सरकार यह नहीं समझ पा रही है या फिर समझना नहीं चाहती है कि 70 के बाद से देश में लोकतंत्र न केवल विस्तारित हुआ है, बल्कि उसमें और गहराई आयी है।
70 तक कमोबेश देश में एक ही पार्टी की सत्ता थी। लिहाजा न चुनाव कराने में और न ही सरकार बनाने और चलाने में कोई दिक्कत हुई लेकिन 70 के बाद तस्वीर बिल्कुल बदल गयी। तमाम क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ। जगह-जगह राज्यों में उनकी सरकारें बनीं। फेडरल व्यवस्था और मजबूत होती गयी। इसी के साथ अगले चरण में यह सिलसिला राज्यों से नीचे जाकर पंचायतों और गांवों के स्तर पर चला गया। परिणामस्वरूप देश में पूरी एक पंचायती राज व्यवस्था लानी पड़ी।
इस तरह से प्रधान से लेकर प्रधानमंत्री के रूप में लोकतंत्र न केवल जिंदा है, बल्कि अपने पूरे वजूद और पहचान के साथ काम कर रहा है। ऐसे में कोई यह नहीं कह सकता है कि पिछले 52-53 सालों में लोकतंत्र कमजोर हुआ है। सच्चाई यह है कि यह न केवल मजबूत हुआ है, बल्कि इसकी जड़ें और गहरी हुई है। ऐसे में इस बीच आने वाली बुराइयों को ज़रूर चिन्हित किया जाना चाहिए और समय रहते उन्हें दूर कर लिया जाना चाहिये लेकिन उसके नाम पर पूरे लोकतंत्र को ही सूली पर लटकाने की साजिश को किसी भी कीमत पर नाकाम किया जाना चाहिए। दरअसल देश में आयी मौजूदा सत्ता और उसके आकाओं का लोकतंत्र में कोई विश्वास ही नहीं है।
अब आइये सरकार की पूरी मंशा की छानबीन करते हैं। और इसके जरिये कितने ठोस रूप से कौन संस्था प्रभावित होने जा रही है? इस पर भी विचार करते हैं। यह बात अब किसी से छुपी नहीं है कि सरकार को न संविधान चाहिए और न ही लोकतंत्र का यह ताना-बाना। लिहाजा सारी संस्थाओं को बारी-बारी से उसे मटियामेट कर देना है। कदम ब कदम वह उसी दिशा में आगे बढ़ रही है। पिछले चुनाव में उसके नेताओं ने संविधान में परिवर्तन की जो बातें कहीं थी वह किस तरह से बैकफायर किया उसको लोगों ने चुनाव में देखा है। लिहाजा सरकार कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहेगी जिससे उसकी नियति का पर्दाफाश हो जाए और एकबारगी लोग उसके खिलाफ खड़े हो जाएं।
लिहाजा उसने ऐसा रास्ता अपनाया है जिसमें लोगों को पता भी नहीं चले और उसका काम होता जाए। यानी सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ उसी साजिश का एक हिस्सा है। सरकार का यह अकेला विषैला तीर कितनी लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए मीठा जहर का काम करेगा उसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। शुरुआत ही उसने एक ऐसी संस्था से की है जिसका अभी तक किसी ने बेजा इस्तेमाल करने की हिम्मत नहीं की थी।
राष्ट्रपति जैसी संस्था को देश में बेहद पवित्र और अक्षुण्य माना जाता था और उसे तमाम राजनीतिक ग्रहों-पूर्वाग्रहों से दूर रखा गया था लेकिन मोदी सरकार ने राष्ट्रपति पद से रिटायर शख्स तक को नहीं बख्शा और उसका राजनीतिक इस्तेमाल कर लिया।
यह काम उसने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ की जांच के लिए गठित कमेटी के अध्यक्ष के तौर पर चुन कर किया। अब उन्होंने जो संस्तुति दी है, उस पर संसद से लेकर सड़क पर बहस होगी और बार-बार राष्ट्रपति का पद उसकी बहस का हिस्सा बनेगा। इससे न केवल उसकी गौरव और गरिमा पर चोट पहुंचेगी, बल्कि वह सवालों के घेरे में भी आएगी। अब बारी संसद और विधानसभा की होगी जिसको ध्यान में रख कर इस पूरी योजना को तैयार किया गया है। अब अगर कोई पूछे कि जिस तरह की गठबंधन की सरकारों का दौर है। अगर किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला और गठबंधन सरकार भी नहीं बन पायी तो ऐसी स्थिति में क्या होगा?
अगर संसद में यह स्थिति आती है तो क्या 5 साल का इंतजार किया जाएगा और किसी अंतरिम सरकार के भरोसे देश चलेगा? या फिर राष्ट्रपति के हवाले कर दी जाएगी पूरी सत्ता? और अंतरिम सरकार बनेगी भी तो किसकी? पिछले दिनों यूपीए और उससे पहले के कार्यकाल में क्या यह व्यवस्था देश में लागू हो पाती? विधानसभाओं में भी अगर इसी तरह से सरकार बीच में गिर गयी और कोई पार्टी या फिर गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में नहीं रहा तब क्या करेगी केंद्र सरकार?
क्या राष्ट्रपति शासन के हवाले रहेगा पूरा सूबा? क्योंकि 5 साल से पहले तो चुनाव होने से रहे। यानी इस प्रक्रिया में आप जनता को सरकार चुनने के उसके बुनियादी अधिकार से ही वंचित कर देंगे।
और इस कड़ी में जब कई बार इस तरह की घटनाएं होंगी और अपनी चुनी हुई सरकारों की जगह अंतरिम या फिर तदर्थ व्यवस्था के सहारे बनी सरकारें काम करेंगी तो समझा जा सकता है कि उसमें जनता अपनी भूमिका कैसे सीमित होते देख रही होगी और एक प्रक्रिया में वह पूरी व्यवस्था से ही अलग हो जाएगी। फिर अंत में न संसद की जरूरत रहेगी और न ही किसी विधानसभा कीं आखिर में किसी सरकार की भी नहीं? जैसा संघ-बीजेपी चाहते हैं। उन्हें इसके लिए कुछ नहीं करना है, बस बीच में खड़ी इन संस्थाओं को ही अप्रासंगिक बना देना है, फिर इसका नतीजा यह होगा कि समाज को मनुस्मृति और वर्ण व्यवस्था के रास्ते पर संचालित करने का मौका मिल जाएगा।
उसके लिए वही स्थाई व्यवस्था है और वह उसी व्यवस्था में जाना चाहती है लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए उसने यह लंबा रास्ता अख्तियार किया है। संविधान के प्रति सरकार कितनी गंभीर है, उसका अंदाजा आज से शुरू हुई संसद में संविधान की 75वीं सालगिरह और उसकी विरासत विषय पर बहस से समझा जा सकता है। इतने गंभीर मसले पर चल रही इस बहस के पहले दिन भी प्रधानमंत्री ने संसद में मौजूद रहना जरूरी नहीं समझा। इतना ही नहीं, 10 दिन से संसद चल रही है और पीए मोदी की संसद में मौजूदगी महज एक दिन की है वह भी महज 10 मिनट के लिए। ऐसे में किसी भी समझदार शख्स के लिए यह समझना कठिन नहीं है कि बीजेपी और संघ संविधान तथा संसद को किस रूप में देखते हैं और उसका क्या करना चाहते हैं।
प्रो. राहुल सिंह
अध्यक्ष उत्तर प्रदेश वाणिज्य परिषद वाराणसी।