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पूर्व प्रधानमंत्री, भाजपा के दिग्गज नेता एवं भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की आज स्वर्ण जयंती है. उन्होंने अपनी राष्ट्रवादी सोच, बेदाग छवि और राष्ट्र समर्पित जीवन से भारतीय राजनीति में एक अमिट छाप छोड़ी. वे एक ऐसे नेता रहे, जिन्होंने अपनी विचारधारा और सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया। खास यह है कि अटल जी के जीवन में सत्ता का तनिक मात्र भी मोह नहीं रहा. उनके नेतृत्व में देश ने सुशासन को चरितार्थ होते देखा. अटल जी ने जहां एक तरफ कुशल संगठनकर्ता के रूप में पार्टी को सींचकर उसे अखिल भारतीय स्वरुप दिया, वहीं दूसरी ओर देश का नेतृत्व करते हुए पोखरण परमाणु परि.क्षण व कारगिल युद्ध जैसे फैसलों से भारत की एक मजबूत छवि दुनिया में बनाई. अटल जी की जन्म जयंती के अवसर पर उन्हें कोटि- कोटि वंदन… वह डा. बीआर अम्बेडकर के विचारों की भविष्योन्मुखी अंतर्दृष्टि से अत्यंत प्रभावित थे। वाजपेयी जी के प्रयास से ही वीपी सिंह सरकार ने भाजपा के समर्थन से डा. भीमराव अम्बेडकर को 31 मार्च, 1990 को भारत रत्न से सम्मानित किया। वाजपेयी जी की इच्छानुसार दिल्ली स्थित 26 अलीपुर रोड, जहां सिरोही, राजस्थान के महाराजा ने डा. अम्बेडकर को केन्द्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा (1951) देने के पश्चात रहने के लिए आमंत्रित किया था, को संग्रहालय के तौर पर विकसित करने की योजना बनाई गई जिससे लोगों को सामाजिक समता के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। डा. अम्बेडकर ने इसी स्थान पर अपनी अंतिम सांस ली थी। वाजपेयी जी की देखरेख में 14 अक्तूबर, 2003 को निजी संपत्ति के विनिमय विलेख पर हस्ताक्षर किए गए और दिसम्बर, 2003 में विकास कार्य शुरू किया गया। बाद में यू.पी.ए. के कार्यकाल के दौरान इस परियोजना को रोक दिया गया। मोदी सरकार ने इसे 100 करोड़ रुपए की लागत पर डा. अम्बेडकर राष्ट्रीय स्मारक के रूप में विकसित किया और 13 अप्रैल, 2018 को राष्ट्र को सममर्पित किया
सुरेश गांधी
जी हां, अटल बिहारी वाजपेयी भारत की राजनीति की आकाश गंगा में पांच दशकों तक दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह रहे. वाजपेयी आज होते तो अपना 100वां जन्मदिन मना रहे होते. लेकिन वाजपेयी अब कथाओं, कहानियों, किवदंतियों और पॉलिटिकल कॉरिडोर में रचते-बसते और विचरते हैं. 16 अगस्त 2018 को दिल्ली में उनका निधन हो गया था. वाजपेयी की जिंदगी के किस्से ’आदर्श राजनीति, लोकप्रिय नेता, सह््रदय कवि’ पर चर्चा के दौरान जिक्र किए जाते हैं. इस वक्त जब देश में जनादेश एक पार्टी को मिला है और नरेंद्र मोदी इसके केंद्र हैं तो वाजपेयी का नाम इसलिए भी याद किया जाता है, जिन्होंने 1999 में बतौर प्रधानमंत्री वैसे गठबंधन का नेतृत्व किया जिसमें 24 पार्टियां थीं और 81 मंत्री थे. इन दलों की क्षेत्रीय अस्मिताएं थीं, भाषा से जुड़े मुद्दे थे।
नदियों के जल बंटवारे को लेकर विवाद था, लेकिन वाजपेयी नाम के विशाल ’वटवृक्ष’ के नीचे सारी पार्टियां, सारी विचारधाराएं एक रहीं. वाजपेयी के व्यक्तित्व करिश्मे ने ’फेविकोल’ का काम किया और इस सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया. वे गठबंधन की सरकार को 5 साल तक चलाने वाले पहले पीएम रहे. वाजपेयी वो स्टेट्समैन थे जिनकी लोकप्रियता ने पार्टी, विचारधारा और देश की सीमाओं को पार कर लिया था. वाजपेयी का विरोध करते वक्त भी विपक्षी उनकी सच्चरित्रता, नैतिक पूंजी, स्वच्छ छवि का अतिक्रमण नहीं कर पाते थे.
वाजपेयी जी राजनीति के साथ-साथ साहित्य में भी खूब रुचि रखते थे. उनकी कई कविताएं लाखों लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं. वाजपेयी की कविताएं प्रेरणा का काम करती हैं. अटल जी अपनी कविताओं के जरिए संसद में जब चर्चा करते थे तब हास्य-विनोद का माहौल बन जाता था. कविताओं के जरिए वे कई बार बहुत ही गंभीर बात भी कह जाते थे. 1957 वो दौर था जब पंडित नेहरू न सिर्फ भारत के बल्कि एशिया के नायकों में शामिल थे. पंडित जी की छवि उस नेता के रूप में थी जो तीसरी दुनिया के देश रहे भारत के लिए करिश्माई नेतृत्व लेकर आया था. इस दौर में कांग्रेस को चुनौती देना आसान नहीं था।
तीन सीटों से लड़ रहे वाजपेयी लखनऊ-मथुरा से हार गए. लेकिन बलरामपुर की जनता को ’दीपक’ की टिमटिमाहट में उम्मीद की लौ दिखी थी. इस चुनाव में वाजपेयी को 1 लाख 18 हजार 380 वोट मिले, जबकि उनके निकटतम प्रतिद्वंदी कांग्रेस के हैदर हुसैन को 1 लाख 8 हजार 568 वोट मिले. इस तरह वाजपेयी लगभग 8 हजार वोटों से चुनाव जीते. मतलब साफ है बलरामपुर के मतदाताओं ने भविष्य के भारत के प्रधानमंत्री का चुनाव किया था. इस जीत के साथ नवयुवक वाजपेयी ने संसद की ओर प्रस्थान किया. संसदीय राजनीति की उनकी ये यात्रा 1957 से 2009 तक जारी रही. मई 1996 में बीजेपी अस्तित्व में आने के 16 साल के बाद देश में सबसे ज्यादा सीट हासिल करने वाली पार्टी बनकर उभरी थी. 164 सीटों के साथ अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री तो बन गए लेकिन सिर्फ 13 दिनों के लिए. बीजेपी की हिन्दुत्व वाली पॉलिटिक्स के चलते वो बहुमत परीक्षण के दौरान जरुरी सहयोगी नहीं जुटा पाई।
अटल बिहारी वाजपेयी राजनेता बनने से पहले पत्रकार थे. वह देश-समाज के लिए कुछ करने की प्रेरणा से पत्रकारिता में आए थे. अटल बिहारी राजनीति में कैसे आए इसके पीछे एक प्रेरणादायक कहानी है. देश के महानतम प्रधानमंत्रियों में से एक और महान राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी एक अच्छे पत्रकार भी थे. असल में, अपने करियर के शुरुआती दौर में वे और बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी दोनों पत्रकार थे.
अटल बिहारी राजनीति में कैसे आए इसके पीछे एक प्रेरणादायक कहानी है. एक स्कूल टीचर के घर में पैदा हुए वाजपेयी के लिए जीवन का शुरुआती सफर आसान नहीं था. 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर के एक निम्न मध्यमवर्ग परिवार में जन्मे वाजपेयी की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर के ही विक्टोरिया (अब लक्ष्मीबाई) कॉलेज और कानपुर के डीएवी कॉलेज में हुई थी. उन्होंने राजनीतिक विज्ञान में स्नातकोत्तर किया और पत्रकारिता में अपना करियर शुरू किया. उन्होंने राष्ट्रधर्म, पॉन्चजन्य और वीर अर्जुन जैसे अखबारों-पत्रिकाओं का संपादन किया. वे बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए थे और इस संगठन की विचारधारा (राष्ट्रवाद या दक्षिणपंथ) के असर से ही उनमें देश के प्रति कुछ करने, सामाजिक कार्य करने की भावना मजबूत हुई. इसके लि उन्हें पत्रकारिता एक बेहतर रास्ता समझ में आया और वे पत्रकार बन गए. उनके पत्रकार से राजनेता बनने का जो जीवन में मोड़ आया, वह एक महत्वपूर्ण घटना से जुड़ा है. इसके बारे में खुद अटल बिहारी ने वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह को एक इंटरव्यू में बताया था. इसके बाद वाजपेयी राजनीति में आ गए. वह साल 1957 में वह पहली बार सांसद बनकर लोकसभा पहुंचे. उनके कार्यकाल में सुशासन एक ऐसी धरोहर बनी, जिसे भारत की प्राचीन संस्कृति और लोकाचार से आत्मसात किया गया है।
बौद्ध धर्म के गण संघ, भगवान बासवेश्वकर द्वारा 11वीं शताब्दी ईस्वी में स्थापित अनुभव मंडप, चाणक्य के अर्थशास्त्र, सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान नगर योजना, मौर्य सम्राट अशोक की धरोहर के और अन्य माध्यमों से पुनः संचित प्रजातांत्रिक मूल्य बेहतर सुशासन हेतु विरासत में मिले ज्ञान भंडार हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती को मनाने हेतु सुशासन दिवस के अवसर पर, यह अत्यावश्यक है कि हम स्वतंत्र भारत में सर्वोत्तम सुशासन उपायों को संस्थागत बनाने में उनकी असाधारण भूमिका पर प्रकाश डालें और उसे आज के संदर्भ में ग्रहण करें।
उनकी सादगी का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि बलरामपुर में वाजपेयी का मुकाबला कांग्रेस के हैदर हुसैन से था. जनसंघ का चुनाव चिह्न दीपक था. पार्टी ने बड़ी उम्मीदों से जनसंघ को बलरामपुर में दीपक जलाने की जिम्मेदारी दी थी. वाजपेयी ने अपना मैराथन प्रचार अभियान शुरू किया. ये मतदान 24 फरवरी से 9 जून के बीच हुआ. यूपी में कई जगह बारिश हो रही थी. वाजपेयी का प्रचार वाहन जीप अक्सर गांवों, शहरों और मोहल्लों की कच्ची सड़कों पर खराब हो जाता था. वाजपेयी जी ने 16 साल पहले 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले एक इंटरव्यू में इन जीपों की कहानी बताई थी. तब वाजपेयी ने कहा था कि ये चुनाव अच्छी तरह से याद है. उन्होंने कहा था “हमारे पास दो जीपें थीं…एक पार्टी ने दी थी…एक किराए पर ली थी… और कोई साधन नहीं था, कार्यकर्ता जरूर थे.“अतीत की यादों में खोये, चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए वाजपेयी ने उस इंटरव्यू में उन दिनों को याद करते हुए कहा था, “जिस दिन मतदान हो रहा था, उस दिन मेरी जीप जंगल में कहीं खराब हो गई, तो