हाल ही में दिल्ली के जंतर-मंतर पर मनरेगा मजदूरों ने अपने अधिकारों और मनरेगा के अंतर्गत हो रहे शोषण को लेकर धरना-प्रदर्शन किया। देश की राजधानी दिल्ली का जंतर-मंतर विरोध प्रदर्शन स्थल के रूप में जाना जाता है। पर 2014 से यानी जब से भाजपा की सरकार आई है यहां भी काफी परिवर्तन देखने को मिला।
जनता के विरोध प्रदर्शन के संवैधानिक अधिकारों पर भी किस तरह की पाबंदी लगाई जा रही है यह पता चला। मनरेगा में हो रही धांधली के विरोध में देश के आठ राज्यों से मजदूर अपनी आवाज दिल्ली की संसद को सुनाने आए थे पर यहां जिस तरह की किलेबंदी और बंदिशे लगा दी गई हैं, यह हमारे संवैधानिक अधिकारों का हनन है। यहां चारों ओर से इस तरह की बैरिकेडिंग की गई कि उसे एक जेल जैसे माहौल में तब्दील कर दिया गया।
पहले यहां महीनों तक धरना-प्रदर्शन चलते थे। पर अब इन्हें तीन घंटे के स्लॉट में बदल दिया गया है। एक संगठन मात्र तीन घंटे तक ही विरोध प्रदर्शन कर सकता है या तो दस बजे से एक बजे तक या फिर दो बजे से पांच बजे तक। यानी जनता के विरोध करने के अधिकार को बहुत हद तक सीमित कर दिया गया है। यह जनता को हतोत्साहित करने का एक तरीका है। देश के विभिन्न सुदूर राज्यों से लोग क्या सिर्फ तीन घंटे के लिए विरोध प्रदर्शन करने आएंगे। जन अधिकारों पर सरकार द्वारा इस तरह की पाबंदी लगाना सरकार की तानाशाही को दर्शाता है।
कहब तो लग जाइ धक से
जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर रहे मजदूर केंद्र सरकार को अपनी व्यथा सुनाने आए थे। किस तरह सरकार द्वारा बजट में कटौती करने पर उन्हें 100 दिन का रोजगार नहीं मिल रहा है। दूसरी बात कि ऑनलाईन हाजिरी में किस तरह की धांधली की जा रही है। वे अगर पन्द्रह दिन काम करते हैं तो उनकी हाजिरी पांच दिन की ही लग रही है।
काम करवाने वाले ठेकेदार ऑनलाईन हाजिरी में नेटवर्क की दिक्कत बता कर पहले हाजिरी नहीं ले रहे हैं और बाद में कम हाजिरी दिखा कर उनकी मेहनत की कमाई डकार जा रहे हैं। इसके अलावा उनको न्यूनतम मजदूरी इतनी कम दी जा रही है जिससे उनका गुजारा होना मुश्किल हो रहा है।
वे अपनी दैनिक मजदूरी भी बढ़वाना चाहते थे। पर सरकार है कि उनकी मांगों पर कोई ध्यान ही नहीं दे रही है। एक तो सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था ही कुछ इस तरह की बना रखी है कि इसमें अदानी-अंबानी जैसे अनेक उद्योगपति दिनों-दिन और अमीर होते जा रहे हैं, और उनके यहां काम करने वाले मजदूरों को अपना घर-परिवार चलाना मुहाल हो रहा है।
जिस तेजी से महंगाई बढ़ रही है उनकी मजदूरी या वेतन नहीं। दिल्ली में आकर अपनी मांगें रखने वाले ये मजदूर जागरूक हैं और अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं। अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को दर्शाने वाला जनगीत ‘कहब तो लग जाइ धक से’ गाना इसका प्रमाण है।
कौन सुनेगा अन्नदाता की पुकार
सानों के साथ वादा खिलाफी और उनसे बात न करना सरकार की बेरुखी, उदासीनता और जनविरोधी मानसिकता को दर्शाता है। किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गारंटी चाहते हैं जो सरकार देना नहीं चाहती। वे शांतिपूर्वक ढंग से दिल्ली के लिए कूच करना चाहते हैं तो सरकार उनके रास्ते में बैरिकेडिंग करवा देती है। उन्हें रोकने के लिए पुलिस तैनात कर देती है। पुलिस उन पर आंसू गैस के गोले छोड़ती है।
सरकार किसानों के प्रति ऐसा व्यवहार करती है जैसे वे इस देश के नागरिक न होकर विदेशी आतंकी हों। इस देश के अन्न उगाने वाले अन्नदाता के प्रति सरकार की इस बेरुखी और विरोध को सरकार की तानाशाही न कहा जाए तो क्या कहेंगे। दूसरी ओर सरकार खाद्य वस्तुओं पर जिस तरह जीएसटी लगाती है, जिसकी वजह से वस्तुएं महंगी होती हैं, महंगाई बढ़ती है। सरकार की इस तरह की नीतियों को जनहितैषी तो नहीं कहा जा सकता, जनविरोधी ही कहा जाएगा जिससे आमजन की थाली दिनों-दिन महंगी होती जा रही है।
मजहबी नगमात को मत छेड़िए
सरकार की मौजूदा चुनौतियों के प्रति उदासीनता है और गड़े मुर्दे उखाड़ने में रुचि। इन दिनों भाजपा सरकार की रुचि बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियाद जरूरतों के प्रति न होकर गड़े मुर्दे उखाड़ने में है कि किस मस्जिद के नीचे मंदिर है। बता दें कि पूजा स्थल का कानून जब 1991 में बना था उस समय अयोध्या का मंदिर-मस्जिद विवाद न्यायालय में विचाराधीन था इसलिए इसे अपवाद स्वरूप रखा गया था।
पूजा स्थल (विेशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 में बना जिसके अंतर्गत 15 अगस्त 1947 के पहले बने पूजा स्थलों की संरचना में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता तो फिर सरकार और एक धर्म विशेष के लोगों की रुचि वहां सर्वे कराने में क्यों है? इसमें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ ने इस कानून के एक लूपहोल का फायदा उठाकर यह कह दिया कि इस कानून में सर्वे करने की मनाही नहीं है।
इससे हिंदुत्ववादियों का हौसला और बढ़ गया है। अब काशी की ज्ञानवापी मस्जिद ही नहीं बल्कि मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद, संभल की मस्जिद, बदायूं की मस्जिद, अजमेर का ईदगाह और न जाने कहां-कहां की मस्जिदों के नीचे मंदिर होने के दावे किए जा रहे हैं और वहां सर्वे कराने की मांग की जा रही है।
सर्वे में यदि प्रमाणित हो जाता है कि वहां मस्जिद के नीचे मंदिर था तो फिर वहां मजिस्द को तोड़कर मंदिर बनाने की मांग उठेगी। गौरतलब है कि मंदिर बनाने की मांग को लेकर अयोध्या की बाबरी मस्जिद को तोड़े जाने का आपराधिक कृत्य इतिहास में दर्ज है। सब जानते हैं कि अब वहां भव्य और दिव्य राम मंदिर बन गया है। इतिहास की गहराई में जाएं तो ऐसा समय भी है खासकर पुष्यमित्र शुंग का समय जब बुद्धिस्टों के बौध विहार तोड़ कर मंदिरों का निर्माण किया गया।
ऐसे में यदि बुद्धिस्ट भी इस तरह की मांग उठाने लगें तो क्या होगा। देश का सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ेगा। अराजकता बढ़ेगी। लोकतंत्र और संविधान पर खतरा बढ़ेगा। देश में गृह युद्ध की स्थिति उत्पन्न होगी। हिंदू-मुस्लिम और दलित वैमनस्य बढ़ेगा।
राजनीति दल इस स्थिति का फायदा उठाएंगे। जनकवि अदम गोंडवी ठीक ही चेतावनी दे गए हैं कि–
हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए।
अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेड़िए।
गलतियां बाबर की थीं जुम्मन का घर फिर क्यों जले।
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िए।
छेड़िए एक जंग मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ।
दोस्त मेरे मजहबी नगमात को मत छेड़िए।
जनता ने तुम्हें चुनकर भेजा है संसद में अब फरियाद सुनाने वो जाएं तो कहां जाएं। हमारा लोकतंत्र चार खंभों पर टिका होता है, वे हैं कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया। आज पहले तीनों स्तंभ जनता को निराश कर रहे हैं। जनता फरियाद करे भी तो किससे? और मुख्यधारा का मीडिया जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, जिसका काम जनता की आवाज उठाना है। वह सत्ताधारियों की गोद में जा बैठा है।
वह उन्हीं की भाषा बोलता है। इसलिए उसे गोदी मीडिया भी कहा जाने लगा है। आज का सोशल मीडिया, न्यूज पोर्टल जरूर जनता की आवाज उठा रहे हैं। वह लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई में अपनी अहम भूमिका निभा रहे हैं जो सराहनीय है। आमजन या कहें जनता हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई नहीं करती, वह मिलजुल कर रहने में विश्वास करती है।
आम जन जब सब्जी खरीदता है, दुकानों से कोई सामान खरीदता है, किसी वाहन का इस्तेमाल आवागमन के लिए करता है, बीमार होने पर किसी डॉक्टर के पास जाता है तो वह उसका धर्म-संप्रदाय देख कर नहीं जाता। रोजमर्रा की जिंदगी बिना धर्म-संप्रदाय के चलती है। जनता सांप्रदायिक सौहार्द की पक्षधर है।
जनता अपने जनप्रतिनिधियों से चाहती है कि वे हर युवा को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा मुहैया कराएं, उसे रोजगार प्रदान करें, महंगाई पर नियंत्रण रखें, उसके लिए अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं मिलें, मजदूरों को उचित मजदूरी मिले उनका शोषण न हो, किसानों की मांगें सुनी जाएं और उनका उचित निपटान हो, आदि। इस दौर में प्राय: देखने में आ रहा है कि सरकारें जनता की बुनियादी जरूरतों पर ध्यान न देकर मस्जिद-मंदिर में अधिक रुचि दिखा रही हैं। जनता की आवाज नहीं सुनी जा रही है। ऐसे में अर्जुन सिंह चांद के दो शेर याद आ रहे हैं-
लश्कर भी तुम्हारा है सरदार तुम्हारा है,
तुम झूठ को सच लिख दो अखबार तुम्हारा है।
इस दौर के फरियादी जाएं तो कहां जाएं,
कानून तुम्हारा है दरबार तुम्हारा है।
प्रो. राहुल सिंह
अध्यक्ष उत्तर प्रदेश वाणिज्य परिषद वाराणसी।