साहित्यकार जितेन्द्र नाथ का हुआ निधन

उग्रसेन सिंह
गाजीपुर। जनपद के नामचीन साहित्यकार व स्नातकोत्तर महाविद्यालय गाजीपुर के पूर्व प्राध्यापक डॉ. जितेन्द्र नाथ पाठक का निधन की सूचना पर पीजी कॉलेज गाजीपुर में शोक की लहर व्याप्त हो गई। बताया जाता है कि उनका वाराणसी में रविवार को निधन हो गया जो पिछले कुछ समय से अस्वस्थ चल रहे थे।
साहित्यकार एवं पूर्व प्राध्यापक डॉक्टर जितेन्द्र नाथ पाठक के निधन पर पी० जी० कॉलेज परिसर में शोकसभा आयोजित की गई। पीजी कॉलेज के हिंदी विभाग में वह लंबे समय तक सेवारत रहे हैं। शोकसभा को संबोधित करते हुए पीजी कॉलेज के प्राचार्य प्रोफेसर (डॉ.) राघवेन्द्र कुमार पाण्डेय ने डॉक्टर जितेंद्र नाथ पाठक के साहित्यिक सफर पर प्रकाश डाला।
उन्होंने कहा कि डॉ. पाठक साहित्य को अपनी साधना समझते थे और उनके लेख यथार्थ ज्ञान एवं प्रेरणा प्रदान करती है। वह पीजी कालेज के विद्वान एवं आदर्श प्राध्यापक रहे। प्रोफेसर पाण्डेय ने बताया कि वह पीजी कालेज के गौरवशाली प्राध्यापक रहे जिन्हें कई साहित्यिक सम्मानों से सम्मानित किया गया है।
साहित्यकार डॉ. जितेन्द्र नाथ पाठक का 89 वर्ष की उम्र में वाराणसी में निधन हो गया। विगत 28 नवंबर को पैर फिसलने के वजह से गिर गए थे। जिससे उनको ब्रेन स्ट्रोक हो गया था। तब से वाराणसी में उनका इलाज चल रहा था। साहित्यकार डॉ. जीतेन्द्र नाथ पाठक का जन्म पांच जुलाई 1936 को हुई थी। अंतिम समय तक हिन्दी की अनवरत सेवा करते हुए लिखते पढ़ते रहे।
उनकी कई दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हैं। जिनमें से प्रमुख सर्णनात्मक-साहित्य में काव्य के बापू, अपनी हत्या के पूर्व, सूर्य के सामने, उसे करीब से देखा है, सागर मन, नदी के भीतर, रोशनी के ईद-र्गिद, एक नई शताब्दी की ओर, भाषाहीनता के बावजूद, यह यात्रा अविराम चलेगी इसके अतिरिक्त 12 समीक्षा पुस्तकें, 15 संपादित पुस्तकें प्रकाशित। उनके निधन से हिन्दी साहित्य जगत में अपूरणीय क्षति हुई है।
पच्चास से अधिक पुरस्कारों व सम्मानों से पुरस्कृत व सम्मानित डॉ. जितेन्द्र नाथ पाठक पाठक को प्रयाग की ओर से साहित्य महोपाध्याय उपाधि, 2001 में साहित्य-भूषण की सम्मानित पुरस्कारोपाधि, 2007 में पं. दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय पुरस्कारोपाधि सम्मान के सम्मानित किए गए थे। आज कई विश्वविद्यालयों में डॉ. जितेन्द्र नाथ पाठक के साहित्य सृजन पर शोध कार्य चल रहे हैं। पीजी कालेज के हिंदी विभाग में वह साल 1957 से 1997 तक कार्यरत रहे इस बीच वे तीन माह के लिए कार्यवाहक प्राचार्य के रूप में भी कार्य किया था।

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