
सुनो रे भैया इस महाकुंभ में…!
एक मोनालिसा भी आई…
हर कोई कर रहा था…!
उसके नैन-नक्श की बड़ाई…
मानो शीशे में… अभी तलक…
उसने… अपनी ही झलक…!
कभी देखी ही न हो भाई…
अनजान बन के कोई… तो कोई…
पहचान लेकर सामने खड़ा था,
हर समय कोई ना कोई…!
तस्वीर उसकी… लेने को अड़ा था…
इस बात को लेकर… हो रही थी…
महाकुम्भ में बड़ी-बड़ी लड़ाई…
चंचल मोनालिसा… जो अब तलक़
ठीक से… मुँह भी न थी धो पाई…
परेशान हो ढूँढने लगी थी…!
कहीं एकांत और तन्हाई…
कहानियाँ अजीब-अजीब सी…!
गढ़ी जा रही थी भाई…
कुछ लोग तो कहने लगे थे… कि…
पूरा परिवार ही इनका…!
इसी नैन-नक्श का है भाई…
अभी तलक मिला न था उसे,
कोई पारखी जौहरी… अब तो…!
पहचान को आतुर यहाँ हैं…
देश भर के काबिल जौहरी…
महाकुम्भ में व्यापार को…!
आई थी… जो मोनालिसा…
व्यापार हो पाएगा या नहीं…?
कई दिनों तक मंथन गहन,
इसी बात पर… वह करती रही…
उहापोह मे वह मनचली…!
कई-कई रात… सोई भी नहीं…
दूसरी तरफ… इसी मोनालिसा ने…
महाकुम्भ में कुछ आस भी जगाई,
इसी बहाने ही सही… प्रतियोगियों ने
सीख लिया… जल्द छोड़ देना रजाई
खरीदनी है एक दिव्य माला…!
जो मोनालिसा ने है पिरोई…
संग एक सेल्फी भी है करानी,
मन में सभी के रहा…
विचार ये तूफ़ानी… और तो और…
मिला हर कोई… मोनालिसा से…
लेकर नजरिया नया-नया…
एक बंजारन से… दुनिया वालों ने…!
प्रयोग भी… खूब नया-नया किया…
मित्रों इसीलिये शायद…!
लोगों की नज़रों से ऊबकर…
मोनालिसा ने पुण्य का स्नान कर…
छिप-छिपाकर… बिन बताये ही…
महाकुम्भ से विदा लिया…
और क्या कहूँ मित्रों…!
यह निर्णय जो उसने ले लिया…
चुपचाप… पर वेग से चलने लगी…
समाज में यह प्रतिक्रिया…
शायद उसे कायदे से समझ में…!
सोशल मीडिया का यह सच आ गया
कि व्यर्थ है देखना यहाँ…!
भविष्य के लिए कोई सपना नया…
कि व्यर्थ है देखना यहाँ…!
भविष्य के लिए कोई सपना नया…
रचनाकार— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ।








