बतख मियां की चाय…

भारत एक लोकतांत्रिक देश है। ऐसा नहीं कि यह कागज पर है। 2004 में स्टेफिनो मेनो की बेटी एंटोनिया अल्विना मेनो (एक अल्पसंख्यक) जो शादी के बाद सोनिया गांधी के नाम से जानी गई” ने डॉ. मनमोहन सिंह (अल्पसंख्यक) का नाम प्राइम मिनिस्टर पद के लिए आगे किया और डॉ मनमोहन सिंह 10 साल तक प्राइम मिनिस्टर रहे” जो सोनिया गांधी को मौका था। प्रधानमंत्री बनने का लोकतंत्र का समय-समय पर परिभाषा बदलता रहता है।
लोकतंत्र के मंदिर (संसद) में सांसद रमेश बिधूड़ी ने एक सांसद के ऊपर अमर्यादित शब्दों का प्रयोग किया। उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। वहीं पहली बार लगभग 147 संसद को निलंबित कर दिया गया। उन सांसदों की गलती क्या थी? टीवी पर सबने देखा था।
लोकतंत्र का मतलब यह भी होता है कि एक चाय बेचने वाला व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बना जिसके चाय बेचते हुए किसी ने नहीं देखा। देश विदेश में इस पर खूब तालियां बजीं। अब यह शब्द किसी जनसभा में सुनाई नहीं पड़ता, क्योंकि ताली बजाने वालों की संख्या कम हो गई है। यह विडंबना ही है कि जलालुद्दीन, शमसुद्दीन (काल्पनिक नाम) से लोग माला फूल खड़ाऊ खरीदेंगे लेकिन फेकू राम चमार “चैतू राम गौतम (काल्पनिक नाम) चाय की दुकान खोलेगा तो उसकी चाय पीना कम लोग ही पसंद करेंगे।
अगर हमारी बात पर विश्वास नहीं है तो कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का स्टेटमेंट सुन लीजिए”। उन्होंने एक बार कहे थे कि मेरी चाय तो कोई पिता ही नहीं। जब चाय की चर्चा चल ही रही है तो क्यों ना बतख मियां अंसारी की चाय की चर्चा कर ली जाय। अगर बतख मियां ना होते तो क्या होता? अगर बतख मियां अंसारी की चाय गांधी जी पी लेते तो भारत का भविष्य क्या होता?
बात 1917 की है जब गांधी जी मोतिहारी में थे।
मोतिहारी की सबसे बड़ी नील फैक्ट्री के मैनेजर दूसरे शब्दों में कहे तो सभी नील फैक्ट्रीयों के मैनेजर इर्विन था। इर्विन ने गांधी जी को वार्ता करने के लिए बुलाया। इरविन ने एक योजना बनाई। गांधी जी को खाने-पीने की चीजों में अगर जहर दे दिया जाए”। ऐसा जहर की जिसका असर थोड़ी देर बाद हो” तो इससे गांधी की जान चली जाएगी और उनके ऊपर कोई आंच भी नहीं आएगी।
जिस आदमी ने उनके नाक में दम कर रखा है, यह सारी बात बतख मियां को बताई गई जो इर्विन के यहां खानसामा (रसोईया) थे। बतख मियां अंसारी से कहा गया कि आप चाय का ट्रे लेकर गांधी के पास जाएंगे। बतख मियां अंसारी गरीब थे”। उनका छोटा सा परिवार था। बतख मियां की हिम्मत नहीं हुई कि वह मना कर दें। बतख मियां चाय का ट्रे लेकर गांधी जी के पास गये लेकिन जब चाय का ट्रे लेकर बतख मियां गांधी के पास गए तो बतख मियां की हिम्मत नहीं हुई कि वह चाय का ट्रे गांधी जी के सामने रख दे।
वह चाय का ट्रे लेकर खड़े रहे गांधी जी ने सिर उठाकर देखा तो बतख मियां रोने लगे और सारा भेद खुल गया। यह किस्सा गांधी जी की जीवनी में कहीं नहीं मिलती।
पूर्व राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद की सबसे प्रामाणिक किताब “चंपारण में गांधी” मैं कहीं नहीं मिलती। यह घटना मैं बीबीसी हिंदी के बहुत ही वशिष्ठ संपादक मधुकर उपाध्याय के हवाले से लिखा हूं। बतख मियां पकड़े गए बत्तख मियां को जेल हो गई। बतख मियां की जमीने नीलाम हो गईं। बतख मियां अंसारी का कोई नाम लेने वाला नहीं बचा था। 1957 में तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम बाबू राजेंद्र प्रसाद मोतिहारी गये।
उनको नरकटियागंज जाना था तो मोतिहारी में बाबू राजेंद्र प्रसाद एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे और देखा कि दूर खड़ा एक व्यक्ति भाषण सुन रहा है। बाबू राजेंद्र प्रसाद मंच से आवाज दिये। बतख भाई कैसे हो और बतख मियां अंसारी को स्टेज पर बुलाए और 1917 की घटना लोगों को बताए और बतख मियां को अपने साथ दिल्ली लाये और बाद में बतख मियां अंसारी के बेटे जान मियां अंसारी को महामहिम बाबू राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रपति भवन बुलाकर रखा कुछ दिन तक जान मियां अंसारी राष्ट्रपति भवन में रहे और बाबू राजेंद्र प्रसाद ने साथ में एक लेटर बिहार सरकार को लिखा। चूंकि बतख मियां की जमीने चली गई थीं। बतख मियां को 35 एकड़ जमीन मुहैया कराई जाय। 66 साल बीत जाने तक बतख मियां के खानदान को नहीं मिली थी।
अभी लगभग 1 महीना पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजधानी दिल्ली में दिल्ली विश्वविद्यालय से संबध एक नए कॉलेज का शिलान्यास किया। उस कॉलेज का नाम विनायक दामोदर सावरकर रखे” इसलिए आज सावरकर का जिक्र करना बहुत ही जरूरी हो जाता है। सावरकर 1948 में गांधी जी की हत्या में चले मुकदमे में बेदाग छूट गए थे लेकिन बाद में कपूर कमीशन ने उन्हें दोषी पाया था। जब गांधी की हत्या हुई तो फरवरी 1948 में अमेरिका से लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नेहरू को एक लेटर लिखा।
इस हत्या में निश्चित रूप से “हिंदू महासभा के उन उग्र तपके का भाग है जिसकी सदारत सावरकर कर रहे हैं”। बाद में पटेल यह भी लिखते कि हैं। इसमें जो भी कार्रवाई हो, वह तथ्यों के आधार पर हो। इसमें उनकी राजनीति से नहीं”। जज आत्मा चरण के नेतृत्व में लाल किले में कोर्ट बनाया गया। उसमें जब गांधी जी की हत्या का मुकदमा चला तो इसमें जो भी अभियुक्त (आप्टे गोडसे और सावरकर) थे। यह सब जब एक कटघरे में बैठते थे तो सभी आपस में बात करते थे लेकिन सावरकर ऐसा दिखाते थे। जैसे वह किसी को नहीं जानते हो।
इन अभियुक्तों में जो बड़गे था और जो हिंदू महासभा को हथियार सप्लाई करता था जो बाद में माफी का साक्षीदार या सरकारी गवाह बन गया उसने सारी बात बतायी। बड़गे ने कहा कि 14 व 17 जनवरी 1948 को मैं आप्टे और गोडसे हम लोग टैक्सी से सावरकर के घर आए थे रास्ते में आप्टे ने बड़गे को बताया सावरकर ने कहा कि अब गांधी का समय पूरा हो गया है। अब इनकी कोई जरूरत नहीं है। इस काम की जिम्मेदारी उन्होंने आप्टे और बड़गे को दी है। यह बात बड़गे ने आप्टे से कहा चूंकि यह सरकारी गवाह थे।
बयान की “कोरोबोरेशन” (पुष्ट करने वाला कोई नहीं मिला) इन सारी बातों से सावरकर मुकर गये। इस मुकदमे में एक दूसरे जज जीडी घोंसला थे” जो आत्मा चरण के नेतृत्व में अपने जजमेंट में लिखते हैं। बड़गे ने जो कह रहा है, यह पूरी तरह से सच लगता है। उसने “क्रॉस एग्जामिनेशन” से इनकार नहीं किया। लगातार उसने उसी बात को बोला” फिर भी बेनिफिट ऑफ़ डाउट संदेह का लाभ सावरकर को देना पड़ेगा। इसमें बाकी सभी अभिलेखों को सजा मिली।
सावरकर उस मुकदमे से बरी हो गये। नाथूराम गोडसे सावरकर को अपना गुरु मानते थे। एक पीएल ईमानदार थे जो परूचरे के वकील थे। वे अपनी किताब में लिखते हैं। गोडसे को एक पीड़ा थी। सावरकर उनको पहचानने से इनकार कर दिया।
सावरकर को 1948 के मुकदमे में बरी होने का प्रमुख कारण बेनिफिट ऑफ डाउट संदेह का लाभ और कॉरोबोरेटिव एविडेंस अपुष्टि वरिष्ठ पत्रकार मुकेश कुमार इतिहास का राम पुनियानी से बात करते हुए कहते हैं। सबको मालूम है। सावन का माफी वीर है। इंग्लैंड में मदन लाल ढींगरा के केस में कायरता से अपने को अलग कर लिया।
1964 में नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल जेल से छूटकर आते हैं तो उनके सत्कार में एक जनसभा आयोजित की जाती है। उसमें जीबी करकरे (जो तिलक के नवासे थे) ने कहा कि नाथूराम गोडसे ने मुझसे पहले बताया था। मैं गांधी जी की हत्या करूंगा, वहां से विवाद फिर शुरू हो जाता है। 1966 में सावरकर की मृत्यु हो जाती है। सावरकर ने खाना, पीना, दवा सब लेना छोड़ दिया था। एक प्रकार से इच्छा मृत्यु हो गई थी।
सरकार ने फिर जीवन लाल कपूर की नियुक्ति की सावरकर के मृत्यु के बाद उनके दो साथी अप्पा चंद्र और उनका सेक्रेटरी जीबी दामले ने बोलने के लिए तैयार हो जाते हैं। दोनों 1948 में गवाही नहीं दी थी। इन दोनों ने यह कहा कि बड़गे ने जो कहा है, वह सत्य है जीवन लाल कपूर इस निष्कर्ष पर आये कि इसमें कोई संदेह नहीं कि गांधी जी की हत्या में सावरकर का हाथ था।
हरी लाल यादव
सिटी स्टेशन, जौनपुर
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