बचपन से ही हमने सीखा,
“अ” से होता है अनार…
पहली बार चखा उसको,
जब मैं हुआ रहा बीमार…
गाँव-देश का मैं रहने वाला,
पेड़ कभी ना देखा इसका…
फल का भी… कभी-कभी ही…!
हो पाया था मुझको दीदार…
सच बताऊँ प्यारे मित्रों…!
सोचा मैंने कई-कई बार,
क्या और कैसी चीज…?
होती है ये ससुरी “अनार”…
मन ही मन में किस्से गढ़ता,
कल्पना करता… अद्भुत और अपार…
ऊहापोह में बचपन बीता,
धीरे से आया जब यौवन द्वार…
पढ़ने को मैं शहर में आया,
एक सहपाठी को मित्र बनाया…
बात अनार की उसे बताया… पर…
वह भी ठहरा बिल्कुल देहाती,
निकला वह भी इसका सताया…!
तय किया हम दोनों ने फिर,
शंका-दुविधा इस “अनार” की,
क्यों न ख़तम कर ली जाय…?
मिलकर लाया जाए एक “अनार”
झट जाकर कोई नजदीकी बाजार…
कई दुकानों पर पूछ-पूछ…!
हताश हो गए हम दोनों यार…
फिर ठेले पर हमें मिला जो “अनार”
खरीद के उसको… पाकर उसको…!
हम दोनों को… मिली खुशी अपार…
अब कमरे पर था आया “अनार”
मन मे उमड़ रहे थे…!
अजब-गजब से विचार… पर…
एक बात हमें समझ ना आए,
काटें-फोड़ें या फिर छीलें…?
हम अपना यह प्यारा “अनार”…
जुगत भला पूछें भी हम किससे…?
सब मानेंगे हमें शुद्ध गँवार….
उपाय कोई ना समझ में आए,
हम दोनों ही पटक रहे थे,
कमरे में अपना मूड़-कपार…
फिर अचानक आया विचार… और…
सामने रखे बेलन से…!
हमने कर दिया उस पर प्रहार…
फूट के फैल चुका था अब तो “अनार”
इधर-उधर बस दाँत चिआर…
अब एक उलझन सामने थी तैयार…
क्या-क्या खाएं… क्या-क्या फेंके…?
समझ न पाएं हम दोनों पगले यार…
पर एक बात दिखी जो कॉमन मित्रों,
मुँह से निकल रही थी बाहर लार…
मेहनत करके… बटोरे दाने हमने…
फिर चाव से खाये हम दोनों यार…
शिकवे-गिला और व्यथा सब दूर हुए
अब तो खूब मजे से…!
पहचान लिए गए थे “अनार”…
आगे की बात… सब जाने हैं यार…
बड़े-बुजुर्गों ने जब जाने…!
इस “अनार” के गुण हज़ार…
बना के अनुभव को आधार,
कई कहावतों का दिया उपहार…
उनमें से ही एक रही…!
एक अनार सौ बीमार…
एक अनार सौ बीमार…
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ