महापर्व होली वैदिक काल से उपनिषद रामायण महाभारत से आज तक भारत के प्राचीनतम महापर्व में से एक है। भारत के सबसे बड़े महापर्व दीपावली दशहरा रक्षाबंधन और होली में से होली इस समय सर्वाधिक लोकप्रिय महापर्व बन गया है। होली का महापर्व हर वर्ष फाल्गुन पूर्णिमा के दिन पड़ता है। इसी दिन होलिका दहन होता है और अगले दिन लोग रंग भरी होली अबीर गुलाल फूलों की ओर भस्म की खेलते हैं लेकिन प्राचीन काल में गीले रंग की होली का कहीं कोई अस्तित्व नहीं था।
होली मनाये जाने का कारण
होली मनाया जाने के विभिन्न कारण है जिसमें पहला कारण है कि भगवान शिव को उनके अखंड समाधि से विचलित करने के कारण कामदेव ने बहुत ही सुंदर वातावरण पैदा कर अपनी पत्नी रति के साथ शिव जी को समाधि से जागृत कर लिया और शिव जी ने तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को भस्म कर दिया जिससे पूरे विश्व में हाहाकार मच गया तब उन्होंने बिना शरीर के कामदेव को जीवन प्रदान किया। होली मनाये जाने का यह एक प्रमुख कारण है। दूसरा कारण है होलिका द्वारा प्रहलाद को जलाकर मारने का प्रयास जिसमें प्रहलाद भगवान श्री हरि विष्णु की कृपा से जीवित बच गये और होलिका भस्म हो गयी। उसका वरदान भी उसे नहीं बचा पाया, इसलिए होली मनाई जाती है।
होली महापर्व से जुड़ी एक कथा ढूढ़ा नाम की राक्षसी की है जिसे शिवजी ने अमरत्व का वरदान दिया था। उसने बच्चों पर भयंकर अत्याचार किया तब सम्राट रघु ने ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ की सलाह पर बच्चों से नाच—गाना, शोरगुल और हुड़दंग मचाकर लकड़ी उपले इकट्ठा करके उसमें अन्य जड़ी बूटियां डालकर मंत्र पढ़कर उसे जलाने का उपाय बताये जिससे ढूढ़ा नाम की राक्षसी का विनाश हो गया होली की की वर्तमान प्रथा अधिक से अधिक इसी पर आधारित है।
प्राचीन होलिका पर्व और वर्तमान स्वरूप वास्तव में होलका का शब्द से निकला है। होलका का अर्थ कच्चा और आधा पक्का अन्न होता है। होलिका दहन में आज भी अन्न को दहन करने की परंपरा तभी से चली आ रही है लेकिन वास्तव में होली का महापर्व ऋतु परिवर्तन का पर्व है जिसमें गर्मी आने वाली होती है और ठंडी विदा होने वाली होती है। ऋतु परिवर्तन के संक्रमण काल में जब लोग प्राचीन काल में खाली रहते थे तब होली का पर्व शुरू हुआ।
इस प्राचीन काल में अन्न का महापर्व और काम महोत्सव भी कहा जाता था। इस समय लोगों का उत्साह उमंग और उत्तेजना चरम पर होती है यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुका है और होली का पर्व के बाद यह तनाव उत्तेजना काफी हद तक दूर हो जाता है। मनोवैज्ञानिक रूप से हर व्यक्ति होली में सहभागिता करके काफी हद तक अपने अकेलेपन की भावना से मुक्त हो जाता है, उसे लगता है कि उसका भी संसार में कोई है।यह असत्य पर सत्य की अंधकार पर प्रकाश की और अज्ञान पर ज्ञान की विजय का प्रतीक है। होली मनाने के बाद ही अन्न कटना शुरू हो जाता था, क्योंकि फैसले तैयार हो जाती है। 8 दिन का होलाष्टक पूरी तरह आराम करने का आमोद प्रमोद का और उमंग उत्साह का दिन होता है जहां तक होली पर रंग की बात है तो उसमें अबीर गुलाल सूखे रंग का प्रयोग होता था लेकिन गीले रंग का प्रयोग अकबर के समय में उसकी रंगीन प्रकृति को पूरा करने के कारण शुरू हुआ। मेवाड़ और विजयनगर की राजधानी हंपी में 16वीं शताब्दी के चित्रों में इसका वर्णन मिलता है। रीतिकाल में भी रंग वाली होली का वर्णन मिलता है। इसके पहले कहीं गीले रंग का वर्णन नहीं मिलता है।
होली पर्व के समय की प्रकृति और वातावरण
वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो होली का महापर्व बसंत ऋतु में आता है। इस समय संपूर्ण वातावरण फसलों से भरा होता है और वातावरण में आम के बौर एक बहुत ही तीखी और कामोत्तेजक गंध छोड़ते हैं और सभी पेड़ पौधे पुष्पों से लदे रहते हैं। शीतलमंद सुगंधित मलय पर्वत की हवा बहती हैं। चारों ओर का वातावरण बहुत ही सुंदर सम्मोहक उत्तेजक होता है। न अधिक ठंड और न ही अधिक गर्म मौसम होता है। यह समय प्रकृति प्रजनन और वंश वृद्धि के लिए सर्वोत्तम होता है। साथ ही चारों तरफ प्रकृति में अद्भुत छटा होती है और फसलों के पक जाने की खुशी भी रहती है।
होलिका दहन होने के कारण वातावरण में व्याप्त विषाणु कीटाणु विषाणु जीवाणु नष्ट हो जाते हैं और विभिन्न जड़ी बूटियां और फसलों के आग में जलाने से उत्पन्न सुगंध संपूर्ण वातावरण को संतुलित करके हानिकारक प्रभाव को नष्ट कर देती है और वातावरण में फैले विषैले वातावरण और जहरीले जीव जंतुओं को भी बिलों के अंदर छुप जाने को बाध्य करती हैं। इस प्रकार हर महापर्व की तरह होली का महापर्व भी पूरी तरह विज्ञान सम्मत प्रकृति और पर्यावरण पर आधारित है। तेल और होटल लगाने से शरीर की हड्डी नस नाड़ियां सभी स्वस्थ हो जाती हैं।
गीले रंगों का प्रयोग कब से शुरू हुआ
गहराई से देखने पर पता चलता है कि गीले रंग का प्रयोग मुगलों के काल में शुरू हुआ जिसे अकबर ने खूब फैलाया अकबर का मीना बाजार तो जगत विख्यात है। बाबर ने इस त्यौहार को मदिरा से जोड़कर इस महापर्व को विकृत किया और जनता तथा राजपूत को मांस मदिरा और नशे का अभ्यस्त कर दिया। कालांतर में होली मांस, मदिरा और अश्लीलता का पर्व बन गया और आज तक इसी रूप में चल रहा है। इसको अश्लील और मैथुनी करने में भोजपुरी फिल्म और बालीवुड फिल्मों का बड़ा हाथ है और अमिताभ बच्चन, पवन सिंह, हनी सिंह जैसे रसिक लोगों ने इसको गंदगी के रूप में बदलने में सबसे बड़ा योगदान दिया। आज तो लोग कीचड़ तेल मोबाइल यहां तक कि मल मूत्र और गंदे चीजों गोबर इत्यादि फेंक कर होली मनाते हैं और इसके रूप को विकृत और वीभत्स कर दिए हैं।
रसिक रंगीन मिजाज लोग होली को बिल्कुल नंगा कर दिए हैं और इसमें रसिक रंगीन मिजाज की महिलाएं सबसे आगे हैं जो अपने धर्म से गिरकर अधर्म का कार्य करती हैं। भगवान श्रीकृष्ण से गीले रंगों को जोड़ना ठीक उसी तरह की मूर्खता है जिस तरह से बौधायन के प्रमेय को पाइथागोरस का प्रमेय कहना। अश्लीलता और विकृत रूप मांस मंदिर का प्रचार प्रसार नशे की चीजें यह सभी समाज के गंदे प्रभावशाली लोगों की देन है।
होली में ऐसा पहले कुछ नहीं था। अब धीरे-धीरे लोगों में चेतना लौट रही है और होली के गंदे काम उत्तेजक और विकृत रूप से लोग दूर है रहे हैं जिस तरह से मुगल काल के पहले राधा का कोई अस्तित्व नहीं है। इस तरह होली में रंगों का अस्तित्व ही मुगल काल के पहले नहीं है। पहले केवल अबीर गुलाल और सूखे रंग का फूलों प्रयोग होता था यह प्रामाणिक रूप से बिल्कुल सत्य है।
होली का वास्तविक स्वरूप
प्राचीन काल में कहीं भी होली में आज की होली का कोई भी अंश नहीं था। पहले लोग अबीर गुलाल हल्दी और फूलों की होली खेलते थे जिससे वातावरण पूरी तरह शुद्ध हो जाता था। लोगों में रोग बीमारियां दूर हो जाती थीं। समाज में सद्भावना और सौभाग्य तथा सदाचार की भावना की वृद्धि होती थी और इससे वातावरण के फैले हुए सूक्ष्म जीवाणु विषाणु रोगाणु नष्ट हो जाते थे और वातावरण सुगंधित हो जाता था। अग्नि में दहन करते समय उसमें लकड़ी उपले और विभिन्न प्रकार के जड़ी बूटियां अन्न के जलने से वातावरण सुगंधित और दिव्य हो जाता था। मुगलों के आगमन के पहले कहीं भी आज की अश्लील और मैथुनी होली का कहीं भी वर्णन नहीं है। इसको मुगलों ने गंदा रूप दिया फिल्मों ने वीभत्स से बनाया। भोजपुरी फिल्मों ने और उसके गायकों ने होली को गंदी ब्लू फिल्मों का रूप दे दिया और आज इंटरनेट मीडिया और समाज के गंदे रसिक रंगीन मिजाज के लोगों ने औरतों को अपने जाल में फंसाने का एक साधन बनाकर होली को अश्लीलता और दुराचार से भर दिया है जिसे समाप्त होना अति आवश्यक है। यही कारण है कि होलिका दहन से लेकर होली खेलने तक शायद ही कोई ऐसा गांव बचता है जहां मारपीट न होती हो नशा और मदिरा का प्रयोग भी मुगलों द्वारा किया गया जिसको आज प्रिंट इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया ने थोड़ा सा लाभ पाने के लिए जमकर प्रोत्साहित किया है। होली का वास्तविक रूप कहीं खो गया है जिसको पुनर्स्थापित करने की बहुत आवश्यकता है।
होलिका दहन की विधि
होलिका दहन में बसंत पंचमी के दिन एक जीवाणु नाशक टहनी सामान्य रूप से रेड़ के डाली के स्थापना की जाती है होलिका तक वह सूख जाता है और उसके चारों ओर सूखी लकड़ियां पत्ते उपली डालकर उसमें जड़ी बूटियों और अधपके अन्न की बालियां और अन्य चीजें शुभ मुहूर्त में डालकर अग्नि लगाई जाती हैं और अग्नि से होलिका से संबंधित मंत्र भी पढ़े जाते हैं और संकल्प किया जाता है कि ज्ञान प्रकाश और अच्छाई का विस्तार हो अज्ञान का अंधकार का और बुराई का नाश हो। संपूर्ण गांव के लोग एक साथ एकत्र होते हैं जिस गांव में एकता और बंधुत्व की भावना भी प्रबल होती है और प्रचंड अग्नि की ज्वालाएं और उससे उठते हुए सुगंधि चारों ओर फैल जाती है। इसके बाद लोग पके हुये अनाज की बालियां अपने घरों में लाकर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं और घर में तेल और उबटन लगाने के बाद उसका बचा हुआ अंश भी होली जलाने पर डाल देते हैं जिससे माना जाता है कि सभी साल भर स्वस्थ रहते हैं।
इस वर्ष होलिका दहन कब है और होली कब खेली जायेगी?
इस वर्ष होलिका दहन पर भद्रा की छाया है, इसलिए इस वर्ष 13 अप्रैल की रात में 11:26 से रात में 12:30 तक होलिका का दहन विधि विधान पूर्वक मंत्रों के उच्चारण के साथ किया जाएगा। बृहस्पतिवार का दिन और बसंत की ऋतु होगी। पूर्णिमा की तिथि 13 मार्च को 10:35 पर लगेगी और 14 मार्च को दोपहर 12:30 समाप्त हो जाएगी, इसलिए रंग वाली होली बिना किसी दुविधा के 14 मार्च को खेली जाएगी जिसमें कोई असमंजस की स्थिति नहीं है।
धूलंडी अर्थात होली खेलना कृष्ण पक्ष प्रथम को होता है और इस प्रकार भी यह 14 मार्च को ही है। इसमें कोई भी संदेह की बात नहीं है। इतना अवश्य है कि दोपहर 12:30 के बाद ही होली खेलने प्रारंभ किया जाय। वह उत्तम रहेगा, क्योंकि इस समय से कृष्ण पक्ष प्रारंभ होगा।