हुलासखेड़ा की खुदाई में मिली दुर्लभ वस्तुएं

  • उत्खनन में मिले सिक्के व विभिन्न कलाकृतियों को राज्य संग्रहालय में किया गया संरक्षित

सन्दीप सिंह
प्रतापगढ़। नवाबों का शहर लखनऊ अपनी रियासत, नफासत और नज़ाकत के लिए तो मशहूर है ही। लज़ीज व्यंजन हो, चिकनकारी और ज़रदोज़ी की बारीकी हो, दशहरी आम की मिठास हो या फिर कथक नृत्य की मुद्राएं नवाबों का यह शहर हर तरह से अनूठा है। ये ऐसे पहलू हैं जिनसे हर कोई परिचित है। लेकिन प्राचीन और आधुनिक संस्कृति के अनूठे संगम के गढ़ में कई ऐसे नायाब किस्से भी हैं जो अभी तक अछूते हैं। उन्हीं में से एक है भीड़-भाड़ से दूर मोनहलाल गंज में बसे हुलासखेड़ा गांव से लगा हुआ एक बहुत पुराना और बड़ा टीला। लखनऊ से रायबरेली जाने वाली सड़क से लगभग 1 किलोमीटर दूर मोहनलालगंज के आगे हुलासखेड़ा गांव पड़ता है और इस गांव के उत्तर-पष्चिम में स्थित टीले पर प्रतिष्ठित है कलेष्वरी देवी मंदिर। इस मंदिर में पूजी जा रही मिट्टी की मूर्तियों का इतिहास ही 1800 साल पुराना है। मंदिर के एक ओर है 84 एकड़ में फैला चारों ओर झील से घिरा विशालकाय टीला।
यहां बने एक कुंए से टूटे-फूटे बर्तनों और मूर्तियों के टुकड़े निकले तो पुरातत्व विभाग ने तत्परता दिखाते हुए साइट पर पहुंच कर जांच शुरू की तो गांव वालों का बड़ी हैरानी हुई। गांव वालों ने कहना शुरू किया-यहां राजा का खजाना गड़ा है जिसकी नागराज रक्षा करते हैं। यहां से जो ईंट भी उठाता है उस पर विपत्ति पड़ती है। पुरातत्व विभाग ने 1979 में टीले का पुरातात्विक खनन प्रारम्भ कराया। सात साल तक चले खनन कार्य के बाद पता चला कि यह स्थान आज से लगभग 3000 साल पहले आबाद हुआ था। यहां के लोग झोपड़ियों में रहते और अस्थि निर्मित उपकरणों, अन्दर से काले और बाहर से लाल तथा डोरी के निशान वाले लाल रंग के बर्तन का इस्तेमाल करते थे। आज से लगभग 2600 साल पहले यहां के लोग लोहे से बने उपकरणों और काले रंग के ऐसे बर्तनों का इस्तेमाल करते थे जिनकी चमक के सामने आज के आधुनिक बर्तन भी फीके पड़ जाएं। हालांकि समय के साथ लोगों के रहन-सहन में बहुत अंतर आया और यहां तांबे और चांदी के सिक्के, अस्थि से बनाई गई चूड़ियां और हाथी दांत के उपकरणों का प्रयोग भी किया जाने लगा। स्थापत्य कला की बात की जाए तो कच्ची और पक्की ईंटों को चूना मिले मसाले से जोड़कर घर बनाने के भी साक्ष्य मिले हैं।
इनके बीच में संकरी गलियों और चौड़े मार्गों के भी साक्ष्य मिले। जल निकास के लिए ढलावदार पक्की नालियां बनायी गईं और पक्की ईंटों के फर्श बनाए गए। यहां के लोग निर्माण कार्य में इतने उन्नत हो गये, जिसका साक्ष्य है हुलासखेड़ा गांव और टीले को जोड़ने के लिए झील के आर-पार जाने के लिए बनाई गई सड़क, जो इतनी मज़बूत थी कि पानी भरा होने के बावजूद इसके ऊपर से बैल-गाड़ियां भी जा सकती थीं।समय बिताने के लिए यहां के लोग पासा खेलते और अस्थि बाणाग्रों के साथ साथ लौह बाग्राणों का भी प्रयोग करते, आखेट खेलते और खेती करते थे। खुदाई में मिली मुद्रा, दूर दूराज के क्षेत्रों से व्यवहार-व्यापार की गवाही देती हैं। यहां खुदाई के दौरान एक मटके से सोने और चांदी के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। चांदी के सिक्कों पर सूर्य, चन्द्र आदि और तांबे के सिक्कों पर एक ओर कुषाण राजाओं के चित्र और दूसरी ओर भगवान शिव आदि को अंकन किया गया है।
उस समय के सिक्कों में गुप्त काल के मयूर प्रकार के और छत्रप प्रकार के सिक्के प्रमुख हैं। यहां एक दुर्ग का निर्माण कार्य भी शुरू कराया गया, लेकिन किन्हीं कारणों से वह पूरा नहीं हो सका। धीरे-धीरे यहां की बढ़ती आबादी और रहन सहन के तरीके में आती गिरावट के भी साक्ष्य भी पाए गए। लोग पक्की ईंटों के घरों की जगह झोपड़ियों में रहने लगे। और धीरे-धीरे इसका पतन होने लगा। समय के साथ-साथ यहां के अवशेष धूल की परतों में दबते चले गये और यहां एक ऊंचा टीला बन गया। हुलासखेड़ा के इतिहास में अभी कई अत्यंत रोचक और ज्ञानवर्धक तथ्य सामने आने शेष हैं। प्रदेश के संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री जयवीर सिंह ने बताया कि ईसवी सन के प्रारम्भ के आस-पास बनी हुई सोने के पत्र पर बनी कार्तिकेय की आकृति खुदाई के दौरान प्राप्त हुई है। यह हमारी सांस्कृतिक विरासत का अनमोल प्रमाण है।
कार्तिकेय की यह दुर्लभ कलाकृति न केवल हमारी ऐतिहासिक धरोहर को उजागर करती है, बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए ज्ञान और गौरव का स्रोत भी बनेगी। राज्य सरकार का यह निरंतर प्रयास रहेगा कि ऐसी ऐतिहासिक जगहों और कलाकृतियों को संरक्षित कर, जनसामान्य के लिए सुलभ बनाया जाए।

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